फ़िल्म जगत के विख्यात शो-मैन राजकपूर की बॉबी, सत्यम शिवम सुंदरम, राम तेरी गंगा मैली जैसी फ़िल्म जब रिलीज हुई थी तब न तो किसी मीडिया ने फ़िल्म को बैन करने के लिए हो हल्ला किया था और न ही किसी राजनैतिक पार्टी, उस पार्टी के नेता, समर्थक की आवाज निकली थी। आजकल फ़िल्म रिलीज होने से पहले ही डिसाइड हो जाता है कि इसका विरोध करना है। अगर कोई न करे तो उससे झक मारकर विरोध करवाया जाता है। फिर भी न करे तो उसे राष्ट्र विरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य, आतंकी आदि राष्ट्रीय उपाधियों से अलंकृत करने के लिए चरण चुम्बक मीडिया और राष्ट्रवादी नेता अपनी-अपनी चाबुक लेकर तैयार रहते हैं। अब राजकपूर की जिन फिल्मों का जिक्र हुआ है। उसमें किसी को भी नग्नता नजर नहीं आई। शायद उस दौर में उसे सौंदर्य माना गया होगा। किसी को संन्यासी फ़िल्म का गीत ‘चल संन्यासी मंदिर में’ में भगवा कपड़े पहने कलाकारों को किसी ने भी भला-बुरा नहीं कहा। इतना ही नहीं राजेश खन्ना और मुमताज पर फिल्माए ‘गोरे रंग पर न इतना गुमान कर’ गीत में भी मुमताज द्वारा पहने भगवा कपड़ों को देखकर शायद ही 70-80 के दशक के लोगों के दिमाग की नस फटी होगी। वास्तव में समय बदल गया है। सच में यह बदलाव इस पीढ़ी के नौजवानों को भी पसंद आ रहा है। क्यों? जिन फिल्मों का विरोध करना है, उनमें आमिर खान, शाहरुख़ खान, सलमान खान का कलाकार या फिर उनका डायरेक्टर प्रोड्यूसर होना पहली शर्त है। इतना ही काफी नहीं है। जिन सिनेमाघरों में(वैसे ये भी अब बचे कहां है) फ़िल्म का प्रदर्शन होने जा रहा हो, उसे फूंक देने के फरमान का जिम्मा सरकार में बैठे मंत्री उठा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है। इससे समूचे विश्व में हमारी गर्दन जिराफ से भी लंबी हो जाएगी। वर्तमान सरकार और सरकार समर्थक कथित संस्कृति की दुहाई देकर जो विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके मंसूबे एकदम साफ हैं कि किसी भी तरह बॉलीवुड का अस्तित्व खत्म हो जाए। साउथ की फिल्मों का जिस तरह भव्य प्रदर्शन अब किया जाने लगा है। उससे इतना तो जाहिर ही होता है कि बॉलीवुड के दिन अब अच्छे नहीं रहे। बॉलीवुड भी इन हरकतों के चलते दो धड़ों में बंट गया है। कलाकारों के साथ अब नसीर, जावेद अख्तर, सलीम सहित इनकी संतानों के लिए नफरत आम बात हो गई है। बॉलीवुड की हिमायत करने वाले कलाकारों और उनकी फिल्मों की ख़िलाफ़त का दौर शुरू हो गया है। यह है हमारा नया भारत। हम इसी भारत के अब नागरिक हैं और रहेंगे।
– प्रीतम लखवाल, इंदौर