खोला था एक दिन यूं ही
जब बंद संदूक को
चुपके से हमने
सीली सी गंध लिए
जगमगा उठे थे
आंखों में
मांझी(अतीत) के सपने
वही एक कोने में
अपने धड़कते अल्फाजों में
कुछ नीले कुछ धुंधले से
तुम नजर आए थे हमें
कांपती उंगलियों से
उठाकर हौले से
खतों को तुम्हारे
सीने से जब लगाया हमने
पाकर सीला सा
शीतल सा स्पर्श तुम्हारा
भर उठा रोमांच से
समूचा बदन हमारा
दहक उठे थे कई पलाश
रुखसारों पर हमारे
भूल कर आंसुओं की
अंतहीन दास्तान को
पल भर में जी उठे थे
कुछ नामुकम्मल ख़्वाब हमारे
डॉ. रत्ना मानिक
टेल्को, जमशेदपुर