ग़ज़ल

कुछ खेत दिखे गांव का घर याद आ गया

मिट्टी के रास्तों का सफ़र याद आ गया

दरवाज़े खिड़कियां सभी के बंद देखकर

हमको किसी फ़कीर का दर याद आ गया

इक भीड़ कह रही थी कि पत्थर उठाइए

उस वक्त हमें अपना भी सर याद आ गया

अब दिल पे इख्तियार नहीं है तो क्या करें

सब भूलना चाहा था मगर याद आ गया

अच्छा यही है भूल जाएं गुज़रे वक्त को

आएगा बहुत याद अगर याद आ गया

कुछ सांप जंगलों में खुद ही लौटने लगे

ज़्यादा है आदमी में ज़हर याद आ गया

मुद्दत के बाद उनसे आज मिल गई नज़र 

हम खुद को भूल आए किधर याद आ गया

आई नहीं दौलत भी किसी काम तो उसको

होता है दुआओं में असर याद आ गया

रवि ऋषि

दिल्ली