चांद और ग़रीब

ग़रीब को 

चांद –

रोटी – सा दिखता है ।

कभी 

भूख़ – सा 

यह  बढ़ता जाता है ।

कभी

रोटियों – सा 

यह घटता जाता है ।

ग़रीब को

चांद –

पेट- सा घंसा दिखता है ।

कभी

रीती थाल –

मावस – सी लगती है ।

कभी 

थाल में रोटी –

पूनम –  सी लगती है ।

ग़रीब को

चांद –

दूर का राही दिखता है ।

अच्छा हुआ 

चांद –

ज़मीं पर नहीं उतरा ।

महल –

अमीरों का

उससे नहीं निखरा ।

ग़रीब को

चांद –

मुठ्ठी में नहीं दिखता है ।

कुछ 

इस पर 

नाम उकेरने में लगे हुए हैं ।

कुछ के 

इस पर 

पहुंचने में कई रतजगे हुए हैं ।

ग़रीब को

चांद –

ज़रा न सियासी दिखता है ।

+ अशोक आनन +

    मक्सी