हे ! युगदृष्टा

हाड़ -मांस से हीन वह पुतला

आज भी 

ब्रह्मांड की असीम गहराइयों में समाकर 

आज भी 

सत्य, अहिंसा को अपनाने की प्रेरणा देता है 

जात-पात, धर्म की बंदिशों से कोसों दूर

स्वच्छता, शुद्धता और बुद्ध के संदेशों की

रश्मियां आज भी छलकती हैं

लेकिन

आदमीजात न जाने क्यों इसे पहचान नहीं रहा ?

बारूद के ढ़ेर पर खड़ी इस दुनिया को

यही

संत चाहिए

इस जग को हे ! युगदृष्टा , हे ! युगपरिवर्तक

तुम्हारे नवचेतन की दिव्य दृष्टि की आज दरकार है

हे ! कृश शरीर

आज सत्याग्रह की आवाज़ उठनी बंद हुई

सर्वोदय सिद्धांत घेरे में है

ग्राम स्वराज, वसुधैव कुटुंबकम्  की भावनाएं आज कहां हैं ?

तुम्हारी सत्य, अहिंसा का दरिया

आखिर सिमट कैसे सकता है ?

हे ! भावी मानवता के आदर्श 

इस स्वार्थी, लहू-लुहान दुनिया को

तुम्हारी जरूरत है

क्यों कि तुम हो मेखला एक अचल

तुम सत्य-अहिंसा की ताकत से

शिलाएं पिघलाते हो

तुम्हारे ही आशीर्वाद हाथ से

इस जग में शांति-यज्ञ संभव हो सकता है

आओ तुम चले आओ

आओ तुम चले ही आओ

इस रंग बदलती, स्वार्थी, भौतिकवादी, मरती-खपती दुनिया में

इक तुम ही तो हो

जो

सत्याग्रह के लिए आज भी अंतरिक्ष के उस अंतिम छोर से भी अपनी लाठी लिए लड़ते हो  !

सुनील महला, फ्रीलांस राइटर, , उत्तराखंड।