चौराहे पर जीवन देखा,
घुटता-सा हर तन-मन देखा,
उन आँखों में जो सपने थे,
उनको मरते क्षण- क्षण देखा।
आसमान से छत को देखा,
धूसर-धुसरित आँगन देखा,
दीवारों के नाम नहीं थे,
खुला-खुला सा जीवन देखा ।
इंसानों सा हाल न देखा,
बदरंगे जज्बात को देखा,
फटे-पुराने उतरन डाले,
नये-पुराने गात को देखा।
चूल्हे खाली बर्तन देखा,
भूखे पेट का नर्तन देखा,
स्वाद का होता मर्दन देखा,
मन को मनाता हर मन देखा।
अभाव में लुटता यौवन देखा,
खड़ा कुपोषित बचपन देखा,
मरा-मरा सा हर मन देखा,
गर्त में गिरता जीवन देखा।
इस जीवन को जबसे देखा,
खुद को परखा और ये देखा,
ऐसों से है अपना बेहतर,
नाहक खुद को कमतर देखा।
मूल्यों का हल्कापन देखा,
नीयत का गिरनापन देखा,
कभी-कभी तो पेट की खातिर,
इनका पशुसम बनना देखा।
जीवन के जो रंग कई हैं
मटमैला-सा ये रंग देखा,
जीवन के जो ढंग कई हैं,
बड़ा बेढंगा ये ढंग देखा।
जीवन के इस ढंग में मैंने,
भाग्य का रस्ता तंग ही देखा,
समझौते की इस दुनिया में,
रोना-हँसना संग ही देखा।
श्वेता कुमारी, नई दिल्ली