निराश नहीं है वह आदमी 

अनाज मंडी में

कंधे पर बोरियाँ ढोता

बीड़ी के कश से धुआं उड़ाता

पसीने से तरबतर

वह आदमी

अपने सपनों के खो जाने से

निराश नहीं है

उसे दिखाई देती है-

टूटी खटिया पर लेटी

खांसती हुई बूढ़ी माँ की

दवा की खाली बोतल

वह देखता है

अपनी सयानी हो रही 

मुनिया को

जिसकी आंखों में पलने लगे हैं

भविष्य के सुहाने सपने

फट गई किताब और टूटे पेन को

बदलने की जिद करते

थक कर सो गया प्यारा मुन्ना और

करवट बदलते हालात

लोडिंग गाड़ियों के हॉर्न

अनाज के ढेरों पर बोली लगते दलाल

नोट गिनता मुनीम

और हँसते – खिलखिलाते जमींदार

उसके उदास क्षणों को नहीं देख पाते

नहीं पहचान पाते

उसकी सिसकती आत्मा को

नोन, तेल, लकड़ी की चिंता

वह फिर बीड़ी के कश में 

भुला देता है

जिजीविषा उसे

ज्यादा बोरियां ढोने को 

मजबूर  करती है

ख्वाबों के झोंके खो जाते हैं

भूख और रोटी की जंग में

निराश नहीं है वह आदमी

जिंदगी से

न कोसता है कभी 

विधि के विधान को

अपनी प्यारी आंखों से

अपने दोनों हाथों को देखता है

फिर पूरे जोश से ढोता 

एक नई बोरी

कुछ नए सपनों के साथ।

 राजकुमार जैन राजन  

चित्रा प्रकाशन  

आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान