वो स्वतंत्र थी
तो कैद की गई
वो सीधी थी
तो सताई गई
वो उन्मुक्त थी
तो चरित्रहीन कहलाई
वो प्रेम में थी
तो रुलाई गई
वो मुखर थी
तो चुप कराई गई
वो प्रतिभा थी
तो प्रतिबंधित कराई गई ।
वो दोषरहित थी
तो दोषी ठहरायी गई।
वो सृष्टिकर्ता थी
तो बांझन भी कहलाई गई।
वो स्वप्न से परे थी
उसे उसकी सीमा बतलाई गई
वो सहज थी,
वह असहज महसूस कराई गई।
वो स्वाभिमानी थी,
बारंबार तिरस्कृत कराई गई।
वो मुस्कुरा रही थी
देखो अश्रुपूरित कराई गई।
वो अकेले रह
समाज को तंज दे रही थी
फिर रिश्तों में ही रुलाई गई ।
संभव था क्या उसका कोई,
समाज और संस्कृति से सवाल पूछना
वो पन्नों पर ही देवी थी
सत्यता में नीच दिखलाई गई।
वो स्त्री ही थी,
जो हर बार, हर युग में
समाज के हाशिए पर लाई गई।
— अन्नू प्रिया
कटिहार , बिहार