जिसके सिर पर हाथ मॉं का,
क्यों उसको फिर रोना है
इस संसार में माँ का आँचल,
स्वर्ग का नरम बिछौना है
इसकी पायल की रुनझुन से,
घर आँगन है खिल जाता
इसकी मेहनत के बूते पर,
मकान भी घर है बन जाता
सुबह सुबह उठ जाती कामों में
रात्रि तक जुट जाती है
पाई पाई जोड़ती है और फिर
घर को नित सजाती है
जग की हर नेमत से बढ़कर,
माँ को कभी न खोना है
माँ का हाथ…
तपती जलाती धूप में,
माँ मानो तरुवर की ठंडी छांव
उबाऊ और नीरसता में,
लोरी की लगती मधुरिम तान
माँ तेरे दम पर मैं दुनिया की
हर मुश्किल से भिड़ जाऊँ
माँ जब मेरे साथ में हो,
सकल बुराइयों से लड़ जाऊँ
दिखने में बड़ी है नाज़ुक,
मन ख़ुशियों का दोना है
माँ का हाथ…
कहने को तो पढ़ी लिखी,
पर गिनती इसे न आती है
खा जाऊँ चाहे जितनी रोटी,
इसे नज़र कम आती है
घरभर को खिलाकर इसके
लिए जब नहीं बचता है
आज मुझे नहीं भूख यही
इसका बहाना चलता है
इसके हाथों की बरकत से,
मिट्टी बन जाए सोना है
माँ का हाथ।
नीलोफ़र
देहरादून, उत्तराखंड