दो हिस्सों में बंटा है स्त्री का जीवन

लड़की के उम्र काल में मध्यांतर (इन्टरवल) आता है। हर लड़की की उम्र का पहला हिस्सा कटता है निश्चिंत, बिंदास और बेफ़िक्री में, मध्यांतर के बाद की उम्र का कुछ कह नहीं सकते, भरे हुए नारियल जैसा रहता है। अगर किस्मत अच्छी रही तो मीठे पानी की झील सा ससुराल मिलेगा, वरना सड़ा बदबूदार गंध मारता जीवन।

दहलीज़ के इस पार एक मनचाहा युग होता है जिसमें चूल्हे चौके की कोई फ़िक्र ही नहीं होती है। खाओ, खेलो और मस्त रहो और दहलीज़ के उस पार एक असमंजस भरा डरावना संघर्ष से लड़ ने वाला युग होता है, एक चुटकी सिंदूर का खेल लड़की के जीवन को जड़ से बदल देता है। जी हाँ चुटकी सिंदूर मांग में सजते ही कहानी में इन्टरवल हो जाता है। उसके बाद की कहानी में एक अन्जान व्यक्ति के हाथों खुद को सौंपकर बाकी का सफ़र तय करना होता है।

शुक्रिया उस रब का जिसने लड़कियों को ये हुनर दिया, पिता के आँगन मखमली परतों पर खेली लाडली, ससुराल की खुरदुरी धरा पर भी खुशियों के फूल खिलाना बखूबी जानती है। इस धरा से उखाड़ कर दूरसी धरा में बो दो फिर भी तुलसी सी पनप जाती है। सच में एक लड़की के उस हौसले को सौ सलाम जो ऐसे अन्जान माहौल में एक अकेली कदम रखती है जिसकी पृष्ठ भूमि से वो बिलकुल अन्जान होती है और पल भर में अपना लेती है नयी ज़िंदगी के हर सांचे को और उसी सांचे में ढ़ल कर अपना वजूद पिघला देती है। 

बिदा होती है तो हर चाहने वाले छोड़ने आते है, कोई दहलीज़ तक, कोई कोई मोटर तक तो कोई स्टेशन तक और लौट जाते है सब एक हद तक आकर। 

माँ की परवाह, बचपन, मोहल्ला और पूरा शहर जहाँ पली बड़ी वो वापस नहीं लौटता। चार कंधो पर चढ़ कर हर औरत के साथ जाती है महियर की माया।

उम्र के पहले हिस्से से निकलकर दूसरे हिस्से में प्रस्थान करते ही लड़की चोला उतार फेंकती है मासूमियत का। वो हंसना, खिलखिलाना, ज़िद्द करना, पैर पटकना सब दफ़न कर देती है महियर की चौखट पर और ओढ़ लेती है मुखौटा झूठी हंसी और ज़िम्मेदारीयों का। एक नन्हा सा वाक्य रट लेती है मुझे सब चलेगा और एक कहानी में कई किरदार निभाते पटापेक्ष तक लिपटी रहती है महियर की माया से। एक लड़की को कहते सुना था की “ए ज़िंदगी हो सकता है सपनों के सूरज को पड़े ढ़लना तू महियर की चौखट पे ही मिलना” क्या बात कही, कोई बेटी नहीं जानती ससुराल मखमली सेज सा होगा या कंटीले पथ सा। इन्टरवल पहले की ज़िंदगी जी लेती है अपनी मनमानी करते। तभी तो बेटी ने मांगा होगा ज़िंदगी को पिता की चौखट पर।

हर औरत की ज़िंदगी में मध्यांतर के बाद की उम्र का सफ़र सहज बन जाए, अगर सरताज का पूरा-पूरा सहकार मिल जाए, हर आँधी हर बवंडर से लड़की लड़ जाए पति की हर बात में रज़ामंदी मिल जाए, हर बहू का जीवन संवर जाए अगर ससुराल में बेटी सा सम्मान मिल जाए। 

वरना तो गूँगी, बहरी बनकर अपने विमर्श में रच देगी कई आग उगलती कविताएं एक सुखमय-आज़ाद भोर के इंतज़ार में बिलखते-तड़पते।

भावना ठाकर ‘भावु’ (बेंगुलूरु, कर्नाटक)