अपने वादों से मुकर जाते हैं लोग।
साथ चलने की जगह किधर जाते हैं लोग।
मंज़िल तक साथ चलने से पहले ही,
फ़ूलो की तरह बिखर जाते हैं लोग।
सांस चलने को ज़िंदगी का नाम न दो,
सांसे तो चलती है,फिर भी मर जाते हैं लोग।
ज़ख्मों को देख कर जो सिहर उठते हैं,
वक्त आने पर ज़ख्मों में नमक भर जाते हैं लोग।
इंसानियत की बाते जो करते हैं दिन रात,
एक दिन वही हैवानियत कर जाते हैं लोग।
गांव में पके अमरूदों को छोड़ कर,
“तबरेज़” पेट की खातिर शहर जाते हैं लोग।
तबरेज़ अहमद
बदरपुर नई दिल्ली