डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657
किसानों ने कहा कि उनका हल देश से ज्यादा नेताओं की स्वार्थ खेती के लिए काम आया है। चूँकि वे किसान हैं इसलिए जल्दी परेशान हो जाते हैं और उनका हल इस परेशानी को बढ़ाने में आग में घी का काम करता है। अब किसानों को कौन बताए कि जिस देश में युवा बेरोजगारी से, महिलाएँ अत्याचार से, विकास पुलिस के एनकाउंटर से समझौता कर जी रहा हो क्या वहाँ वे सरकार के साथ समझौता भी नहीं कर सकते! हमारे किसान बड़े ही नासमझ हैं। न जाने किसने उनकी आँख पर पट्टी बांध दी है कि नए कानून उद्योगपतियों के हितों में है। अब भला उन्हें कौन समझाए कि ये उद्योगपति भी तो किसान हैं। विश्वास न हो तो जिन उद्योगपतियों का विरोध कर रहे हैं उनके दादा-परदादा को ही ले लें। उन्होंने भी तो कभी-न-कभी खेती की होगी। चाहें तो फोटोशॉप के जरिए बनवाई गई उनकी खेती वाली तस्वीरें ही देख लें। सूट-बूट पहने खेतों में हल चलाते हुए। वैसे भी जो किसान आंदोलन कर रहे हैं, क्या उनके बच्चे दूसरे क्षेत्रों में अपना हल नहीं चला रहे हैं? चला रहे हैं न! फिर इन उद्योगपतियों से परहेज क्यों? किसानों का दिल बड़ा होना चाहिए। खुद को भाड़ में न झोंक सकें, वे सरकार की नजर में किसान तो क्या इंसान भी कहलाने योग्य नहीं हैं।
सबसे पहली बात हल का उपयोग खेतों में नहीं करना चाहिए। जहाँ युवा पढ़-लिखकर अपना बेशकीमती समय व्हाट्सपिया, फेसबुकिया, इंस्टाग्रमिया दुनिया को दे रहे हैं और सृजनात्मकता के नए-नए आयाम स्थापित कर रहा है वहीं किसानों को चाहिए कि वे अपना हल, अपनी खेती सब कुछ नेताओं को सौंपकर हाथ में कमंडल धरे हिमालय की गोद में तपस्या करने चले जाना चाहिए। इस देश में किसान बनने से कोई नेता नहीं बनता। जो भविष्य साधु का है वह किसान का नहीं। किसान का जन्म ही दूसरों की सेवा और खुद को उत्पीड़ित करने के लिए हुआ है। उन्हें समझना चाहिए कि खेती नुकसान का धंधा है। जितना वे उगाते नहीं, उतना बो देते हैं या यूँ कहिए कि बुहार देते हैं। अब भला आप ही बताइए कि किसी फसल पर सौ रुपया लगाकर पचास रुपए भर का अनाज पैदाकर उसे पाँच-दस रुपए में बेचना बेवकूफी नहीं तो और क्या है? किसानी इस देश का सबसे बड़ा बेवकूफी वाला धंधा है। ये म्यूचुअल फंड के विज्ञापन वाले ऐसे समय कहाँ मर जाते हैं। उन्हें चाहिए कि वे किसानों की खेती के नीचे लिख दें कि खेती करना बाजार नियमों के जोखिम के अधीन है। इसलिए खेती करना या न करना सोच-समझकर लिया जाने वाला फैसला है।
वास्तव में किसान को सब कुछ करना चाहिए, सिर्फ किसानी छोड़कर। वे क्यों भूल जाते हैं कि किसानी करने के लिए देश की सरकार बैठी है संसद में। वहीं पर वे खेती करते हैं, फसल उगाते हैं और नए-नए कानूनों की फसलों से जनता का उद्धार करते हैं। हम सभी उन्हीं कानूनी फसलों को खा-पीकर तो ही बड़े हुए हैं। देश को नंगे-भिखमंगे किसान नहीं, बड़े-बड़े उद्योगपति चाहिए जो हमें अपनी जेब में रख सकें। उनकी जेब, जेब नहीं देश का सुरक्षा कवच है। यह भगवान महावीर भी बड़े भोले थे। न जाने वे किस मूड में थे और कह दिया कि जियो और जीने दो। आजकल के उद्योगपति भगवान महावीर के इस कथन को पुनर्परिभाषित करने पर तुले हैं – मरो और जीने दो। यहाँ मरो का प्रयोग किसानों के लिए और जीने दो का प्रयोग तो आप खुद ही समझ गए होंगे। अंतिम और कटु सच्चाई यह है कि हल लकड़ी का बना होता है। लकड़ी के जलने से क्रांति पैदा हो न हो, चिता की आग जरूर पैदा हो सकती है। इसलिए किसान सरकार के हल को अपना हल समझें तो उनका भला है, वरना आगे जिंदगी उनके लिए बला है। इसीलिए –
हलधर तेरे हल की, न कर ऐसी-वैसी बात।
तू एक बीती रात है, सो खत्म हुई तेरी बात।।