देखते ही देखते यह क्या हुआ….. !

                               राजेंद्र बज

                            राजनीति में वह दौर अब न रहा जब व्यापक जनहित के प्रति समर्पित विचारधारा निस्वार्थ भाव से राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा जागृत करती थी। नीति और सिद्धांतों पर आधारित राजनीति का ताना-बाना नागरिकों को पराधीनता के दौर से मुक्ति दिलाने का था। स्वतंत्रता पश्चात प्रारंभिक दो-तीन दशकों तक तो व्यापक जनहित के प्रति समर्पित विचारधारा के साथ राजनीति की जाती रही। सेवा और समर्पण का भाव राजनीतिज्ञों के चरित्र में शुमार होता देखा गया। राजनीतिज्ञों द्वारा उस दौर में उच्चस्तरीय आदर्शों को आत्मसात किया जाता रहा था। लेकिन इसके पश्चात राजनीतिज्ञों की महत्वाकांक्षा निरंतर परवान चढ़ने लगी। व्यक्तिवादी विचारधारा के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन हुआ। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच परस्पर सत्ता संघर्ष का दौर भी दिखाई दिया। 

                  राजनीति का मुख्य लक्ष्य विलोपित हो गया तथा स्वार्थसिद्धि के प्रभावशाली साधन के रूप में राजनीति का इस्तेमाल किया जाने लगा। इन तमाम विकृतियों के चलते स्वस्थ लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा को पुनः विकसित किए जाने की नितांत आवश्यकता है। इन संदर्भों में यह अत्यंत जरूरी है कि आम नागरिक राजनीति के प्रति अपनी अभिरुचि जागृत करें। यह जरूरी नहीं कि राजनीतिक सक्रियता ही अपेक्षित है। अपितु आशय महज इतना है कि आम नागरिक राजनीतिक दलों की नीति और नीयत को लेकर अपना मत स्थापित करें। अलग-अलग दलों की अलग-अलग विचारधाराओं का अपने स्तर पर मूल्यांकन करें। सही का चयन करें और गलत को नजरअंदाज करें। इस बात का यह आशय भी है कि सही का पक्ष ले तथा गलत का विरोध न करें तो न करें , लेकिन उसे नजरअंदाज करके चले।

                     निश्चित रूप से आम नागरिकों की राजनीतिक जागृति राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगी। दरअसल आम नागरिकों का राजनीति के प्रति अनासक्ति का भाव राजनीति के निरंतर दूषित होते रहने का प्रमुख कारण रहा है। जन जागृति द्वारा ही राजनीतिज्ञों की बेलगाम मनोवृति पर प्रभावी रूप से अंकुश लगाया जा सकता है। विभिन्न राजनीतिक दल आम नागरिकों की राजनीति के प्रति अरुचि के चलते अपराध वृत्ति में लिप्त चेहरों को भी चुनावी समर में उतारते रहे हैं। विकल्प के अभाव में आम नागरिकों के सम्मुख छोटी बुराई या बड़ी बुराई इनमें से ही किसी एक का चयन करना होता है। नागरिकों की इस दुविधा के मूल कारण में उनकी राजनीति के प्रति अरुचि ही है। समाज के प्रबुद्ध एवं संभ्रांत समझे जाने वाले वर्ग द्वारा राजनीति को हेय दृष्टि से देखा जाना, एक प्रकार से लोकतंत्र का ही अपमान है।

                   दरअसल इस स्थिति को बदलना होगा। अन्यथा लोकतंत्र में लोकतंत्र की धारणा के अनुरूप लोकतंत्र कहीं दिखाई नहीं देगा। राजनीति में धनबल और बाहुबल का वर्चस्व राजनीति के अपराधीकरण का कारण बनता रहा है। ऐसे दौर में नागरिकों द्वारा जागृत अवस्था में दिए गए जनादेश से विसंगतियों से पार पाया जा सकता है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राजनीति का जो विकृत स्वरूप दिखाई देता है, उसके मूल में राजनीति के मैदान को नागरिकों द्वारा खुला छोड़ देना है। सीधे तौर पर यदि कहा जाए तो नागरिकों की राजनीति के प्रति अनासक्ति के चलते राजनीति निरंतर दूषित होती रही है, तो यह गलत नहीं होगा। मनमानी नीति और मनमाने निर्णयों के आधार पर जोड़-तोड़ के सहारे बनती सरकारें, परस्पर विपरीत विचारधारा का सत्ता के लिए ध्रुवीकरण और वर्ग विशेष के हित साधन की रीति-नीति के चलते राजनीतिक शुचिता और पवित्रता लगातार दांव पर लगती रही है।

                   यह सब एकाएक नहीं हुआ। दरअसल राजनीतिक दलों की गंभीर से गंभीरतम गलतियों पर भी जब नागरिकों ने विशेष संज्ञान नहीं लिया तब इन दलों के हौसले निरंतर बढ़ते ही गए। आम नागरिकों को जैसे चाहे वैसे बरगलाया जाता रहा। सब्जबाग दिखाए गए और कभी ना पूरे होने वाले वादों के सहारे चुनावी वैतरणी पार की जाती रही। आज भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। दल बदले, चेहरे बदले किंतु व्यवस्था को व्यवस्थित कर देने के जमीनी प्रयास बहुत कम सार्थक सिद्ध हो पाए। परिणामस्वरूप विकृतियों के जाल का जंजाल हर दौर में देश-प्रदेश को समस्या प्रधान ही बनाता गया। ऐसे में नागरिकों की राजनीतिक चेतना ही तमाम विसंगतियों का निदान कर सकेगी।