अपनी ही बस्ती में….

बस्ती बसाकर हम

  अपनी ही बस्ती में

  कभी कभी इतने

  विराने से हो जाते हैं

  हम अकेले तन्हा से

  दुनियां की भीड़ में

  जैसे बेगाने होकर

  खुद से खो जाते हैं।

  उतार चढ़ाव ये

  सांसों की तरह

  चलते फिरते है

  सांसों में बस अपने

  सांसों में रहते हैं

  इशारों इशारों में

  रामबाण तक चलते हैं।

  अपनी ही बस्ती के हाथों

  हम हवन हो जाते है

  मुफलिसी के दौर मैं

  चाहे हम करें कितना भी

  सलाम झुक झुक कर

  ठोकरें जमाने की हम

  अपनों से ही खाते हैं।

       लाल बहादुरश्रीवास्तव

       9425033960

  0शब्द शिल्प/एल आई जी,/ऐ-15

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