कुर्सी अमृत है जगत में, बाकी सब विषबेल।
कुर्सी अनंत अनादि है, कुर्सी ही जीवन खेल।1। कुर्सी ही आदि और अंत है। कुर्सी ही मध्य और अमध्य है। कुर्सी खेल, मेल, जेल, बेल, महासेल है। यह गुड़, अमृत, शहद, शक्कर सब कुछ है। इसके अलावा अन्य सभी विष है! कुर्सी काव्य अष्टामृताई में कवि कुर्सी दास ने कुर्सी के विराट स्वरूप को आमजन के सामने स्पष्ट रूप से प्रकट किया है।
कुर्सी बिन ज्ञान न होत है, कुर्सी बिन दिश अजान,
कुर्सी बिन इन्द्रिय न सधें, कुर्सी बिन बढ़े न शान।2। कुर्सी के बिना न ज्ञान है, न पहचान! एहसान है, न शान! इंद्रियां वीरान है। दिशाएं अनजान है। कवि कुर्सीदास खुलेआम कह रहे हैं। कवि कुर्सी के ज्ञानमयी दिव्य स्वरूप को जनमानस के आगे प्रकाशित कर रहे हैं।
कुर्सी मन में बैठत सदा, कुर्सी बिन जग काल,
कुर्सी अवगुण को मेटता, मिटें सभी भ्रमजाल।3। मन, वचन, कर्म आदि में कुर्सी व्याप्त है। कुर्सी में ही सवेरा और अंधकार समाया है। कुर्सी से सारे भ्रम जाल मिट जाते हैं और यह अवगुणों को सोख लेती है। ऐसी कुर्सी दिव्य है। दिव्यतम है! कुर्सी के काव्य रूप को उद्घाटित करते हुए कवि मन से वचन और कर्म में कुर्सी की परिणिति के गीत गा रहे हैं।
कुर्सी ग्रंथन का सार है, कुर्सी है प्रभु का नाम,
कुर्सी अध्यात्म की ज्योति है, कुर्सी हैं चारों धाम।4। सभी ग्रंथ, आध्यात्म, धाम, पीर, पंडित, मौलवी सब कुछ है कुर्सी! कुर्सी के सिवा अन्य कोई नाम श्रेष्ठ नहीं है। कवि कुर्सी का बखान कर रहा है। देश-दुनिया ब्रह्मांड की सभी ज्ञात-अज्ञात शक्तियों से आगे बढ़कर कुर्सी की अभ्यर्थना कवि की कल्पना से भी बाहर है।
कुर्सी कृपा जिस नेत पर, पूरन हों सब काम,
कुर्सी की सेवा करत ही, मिले ब्रह्म का धाम।5। जो कोई कुर्सी की सेवा करे। जिस पर कुर्सी की कृपा रहे। उसे आठों धाम और नव निधियों का सुख मिलता है। कवि स्पष्ट कर रहा है कि जिस किसी पर कुर्सी की कृपा हो जाती है, उसे अन्य किसी कृपा की आवश्यकता नहीं रहती है। वह परम कृपा अधिकारी बनकर अंत में कृपा दाता बन जाता है।
कुर्सी अनंत तक जानिए, कुर्सी ओर न छोर,
कुर्सी प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर।6। कुर्सी का ओर है न कोई छोर। न आदि है, न अंत। अनंत है। यह महाअनंत यह! यह दिव्य प्रकाश का पुंज है और अमावस के घनघोर अंधेरे में पूर्णिमा का चांद है। कुर्सी के दिव्य स्वरूप को प्रकट करने में कवि ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। कुर्सी वर्णन में कवि की सगी नानी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुई है श्रीमान!
गीली मिट्टी अनगढ़ी, हमको कुर्सीवर जान,
ज्ञान प्रकाशित कीजिए, आप समर्थ बलवान।7। हे कुर्सी! हम आपके आगे बिल्कुल गीली मिट्टी के माधो मात्र हैं। अनगढ़ हैं। बिल्कुल बेकार हैं। आप अति बलवान हैं। समर्थ हैं। ज्ञान के पुंज है। इसलिए हे कुर्सी! हमें प्रकाशित कीजिए। कुर्सी के बलवान स्वरूप का दृष्टांत देकर कवि ने अपनी अति सूक्ष्म विवेकी साधना प्रस्तुत की है।
नेता वही जो सीख ले, कुर्सी ज्ञान अगाध,
कुर्सी भाव मन में रखे, चलता चले अबाध।8। हे कुर्सी! एक नेता मात्र ही है; जो आपके अगम, अगोचर, अनित्य, आनंद, अनादि, अनिंद्य ज्ञान को अपने मन में भाव पूर्वक धरे हुए है। वही आपका भोक्ता है। नेता ही आपके वैध-अवैध रूप को मन, वचन एवं कर्म में धरे रखता है। कवि कुर्सीदास ने कुर्सी के मुख्य उपासक नेता के कुर्सी दर्शन को जनमानस के आगे प्रकट किया है।
— रामविलास जांगिड़,18, उत्तम नगर, घूघरा, अजमेर (305023) राजस्थान