मंजरी

मंजरी अभी अपने नित्य कार्यों से फारिग होकर बैठी ही थी कि आसमान में बादल घिर आए और तेज हवाएं चलने लगीं।

बरसात होने की आशंका से उसने रमा को आवाज लगाना शुरू किया…. “रमा! ओ रमा! चल, चल, जल्दी छत पर देख! कहीं बारिश आ गई, तो मेरे सारे पापड़ और बडियां खराब हो जाएंगे।”

“हां….हां….बहुरानी! अभी जाकर उतार लाती हूं।” कहते हुए रमा भागी-भागी छत पर गई।

तब तक मंजरी भी बाहर आंगन में पड़े कपड़े उतारकर भीतर ले आई। तभी उसकी नजर वही पास ही, कोने में खड़े नन्हे राजू पर पड़ी। मन में तो आया, पास जा कर पूछ ले….. बारिश अच्छी लगती है तुम्हें…?

पर केवल मन में सोचकर ही रह गई क्योंकि वह जानती थी कि राजू के पास पहुंचने से पहले ही राजू वहां से भाग जाएगा। यही तो कर रहा था वह पिछले चार महीनों से।

चार महीने पहले ही राजू के पिताजी मंजरी को उसकी मां बना कर ले आए हैं। दो बरस हुए, जब उसकी सगी मां उसे छोड़कर भगवान जी के पास चली गई थी। नन्हा राजू मृत्यु का अर्थ भी न जानता था तब। उसे केवल इतना समझाया गया कि भगवान को भी मां की जरूरत होती है इसलिए मां भगवान जी के पास चली गई हैं। और तब बिना किसी के कहे, उसने खुद ही यह भी सोच लिया था कि थोड़े समय बाद मां वापस आ जाएगी।पिछले साल से इसी उम्मीद में तो था वह। लेकिन चार महीने पहले जब मंजरी का घर में प्रवेश हुआ तो वह समझ गया कि अब उसकी मां कभी वापस नहीं आएगी।

नफरत तो नहीं करता था वह मंजरी से, परंतु उसे अपनी मां भी न मानता था। मंजरी खूब कोशिश करती उस मासूम के बेरंग-से बचपन में अपनी ममता का रंग भरने की, लेकिन राजू एक भी अवसर न देता उसे अपने पास आने का। जैसे ही वह राजू की ओर कदम बढ़ाती, वह वहां से भाग जाता…. जैसे कि अभी कुछ देर पहले।

रमा ऊपर से पापड़, बडियां समेट कर ले आई। उसके नीचे आते ही झमाझम बारिश शुरू हो गई।

“भाभी! आज तो बचा लिया राम जी ने। थोड़ी सी और देर होती जाने में, तो सब सामान भीग जाता।”

“हां… हां…. चल, अब इन्हें यहां आंगन में एक ओर फैला दे।” मंजरी ने रमा को आदेश देते हुए कहा और स्वयं वही एक ओर बीड़ा डाल कर बैठ गई।बारिश होते देखना उसे बचपन से ही पसंद था। घर के बाहर गली में जब पानी भर जाता, तो चारों भाई-बहन मिलकर कागज की नाव बनाकर खूब तैराया करते।अभी बचपन की यादों में खोई ही हुई थी कि मासूम राजू की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग की।

“मां! मां! देखो…. बारिश शुरू हो गई। चलो न बाहर, पानी में नाव चलाएंगे।” राजू ने उसके हाथ को झकझोरते हुए कहा। दो पल के लिए तो मंजरी स्तब्ध ही रह गई….कहीं कोई स्वप्न तो नहीं देख रही!

लेकिन राजू ने जब एक बार फिर से मंजरी का हाथ पकड़कर उसे बाहर की ओर खींचा, तो उसे विश्वास हुआ कि यह स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत है। चार माह से मंजरी जिस बालक के समीप जाने के लिए तरस गई थी, आज वह स्वयं अपने मुख से उसे मां कह कर पुकार रहा था।

अभी तक वह बालक मंजरी में अपनी मां को न ढूंढ पाया था, लेकिन आज इन बारिश की बौछारों में शायद उसे मंजरी में अपनी मां की छवि साफ नजर आ रही थी।भावविभोर-सी हो, मंजरी चल पड़ी अपने राजू का हाथ थामे….बाहर बारिश में, जहां वह जी सके अपने मातृत्व और अपने बचपन को एक साथ, साथ साथ।।

 रुचिका राणा

गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश

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