कितने कितने हिंदुस्तान,

नल पर अकाल की व्यतिरेक ग्रस्त जनानाओं की

आत्मभूत मर्दाना वाच्याएं।

एक-दूसरे के वयस की अंतरंग बातों,

पहलुओं को

सरेआम निर्वस्त्र करती,

वात्या सदृश्य क्षणिकाएं,

चीरहरण, संवादों से

आत्म प्रवंचना, स्व-स्तुति,

स्त्रियों के अधोवस्त्रों में झांकती

शब्दों की तीक्ष्ण नजरें,

निज संबंधों को

उघाड़ती शब्दांजलियां,

पानी के चंद कतरों को

गुण्डियों, जंग लगी छेद वाली

बाल्टियों में सहेजती।

कभी-कभी असगर और अमर के

लहू का लाल रंग

इस नल के पानी से कितना

मिलता-जुलता दिखता है।

पानी शायद रंगहीन

न जात, न पात।

लहू-लाल, न हिन्दू न मुसलमान,

वैसे ही जैसा खुला आसमान ?

समाज में पानी का अहम,

लहू के रंग से कहीं ज्यादा,

गहरा, और नल के ठीके पर

दिखाई देती है, सुबह शाम

धर्म निरपेक्षता की जीती-जागती

और सच्ची मिसालें।

संजीव ठाकुर,चोबे कालोनी रायपुर छ.ग.

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