टोरंटो (कनाडा) निवासी व्यंग्यकार श्री धर्मपाल महेंद्र जैन जी का सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह भीड़ और भेड़िए प्राप्त हुआ। लिफाफा खोलकर जैसे ही लाइटवेट किताब हाथों में रखी, वह एकाएक वज़नदार लगने लगी। इसकी दो वजहें थीं -एक तो यह प्रतिष्ठित ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ प्रकाशन से आई है और दूसरी वजह इसकी भूमिका पद्मश्री व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी जी ने लिखी है। ज्ञान सर की भूमिका पढ़ने के दौरान बकौल परसाई जी जाना “जरूरी नहीं कि व्यंग्य में हँसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म साक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सडांध को इंगित करता है और परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है।” यही बात व्यंग्यकार के आत्मकथ्य में भी पढ़ने को मिली। इस दमदार बात के दोहराव के पीछे कुछ तो वजह थी। पढ़कर आश्चर्य हुआ कि दरअसल ये वाक्य तो आज से लगभग चालीस बरस पहले व्यंग्य के भीष्म पितामह हरिशंकर परसाई जी ने श्री धर्मपाल महेंद्र जैन के व्यंग्य संग्रह ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ की भूमिका हेतु लिखे थे। प्रस्तुत संग्रह के लेखक ने साफ शब्दों में स्वीकार किया है कि वे परसाई जी से गहरे तक प्रभावित होकर वचनबद्ध व्यंग्य लेखन के पक्षधर है। वे मानते हैं कि व्यंग्यकार का उद्देश्य व्यवस्था की सडांध को इंगित करना है। यह व्यवस्था समूचा समाज है जिसे हम निर्मित करते हैं, जिसमें हम जीते हैं। ऐसे में जनमानस से जुड़े बिना व्यंग्यकार होने के मुगालते में रहना बड़ा भ्रम है। गोकि वे समझते हैं कि आज के व्यंग्यकार के जीवनमूल्य कबीर जैसे नहीं है, उसकी अपनी सीमाएँ हैं, फिर भी उसके पास विचार, दृष्टि, तर्क, कौशल सब कुछ है। मायने यह रखता है कि किसी मुद्दे पर वह कितनी गम्भीरता से जुड़ा है।
स्वघोषणा के मुताबिक ‘भीड़ और भेड़िए’ के व्यंग्यकार श्री धर्मपाल महेंद्र जैन पाठकों की चेतना को झकझोरने और आत्म साक्षात्कार करवाने की बहुत हद तक कोशिश करते दिखे हैं। यद्यपि संग्रह की रचनाएँ आकार में छोटी हैं लेकिन विषय के निर्वहन में पूर्णता लिए हुए हैं। व्यंग्यकार ने भिन्न विषय विसंगतियों पर कलम चलाते हुए निस्संदेह जनमानस से जुड़ने का सफल प्रयास किया है।
संग्रह में गौर करने लायक बात यह कि किसी क्रिकेट टीम के बल्लेबाजी क्रम की तरह लेखक ने मेरे हिसाब से अपनी वज़नदार रचनाएं टॉप ऑर्डर में रखी हैं। हम पाते हैं कि संग्रह की प्रतिनिधि रचना ‘भीड़ और भेड़िए’ प्रथम पायदान पर है। इसी तरह ‘प्रजातन्त्र की बस’, ‘दो टांग वाली कुर्सी’ और ‘भैंस की पूंछ’ क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर रखी हैं। शुरुआती रचनाएँ पाठकों को जोरदार व्यंग्य की दावत देती हैं। ‘भीड़ और भेड़िए’ रचना में प्रतीकों के माध्यम से व्यंग्यकार ने देश के भीड़तंत्र/भेड़तंत्र और भेड़ियातंत्र पर गम्भीर बातें कही है। इस रचना के द्वारा व्यंग्यकार ने गम्भीर सवाल दागे हैं। पंच देखिए-
“डराने के लिए डर का भ्रम भी पर्याप्त है।”
“आदमी से बनी भेड़ का चरित्र आदमी जैसा ही रहता है, संदिग्ध।”
“मैंने आवारा और दलबदलू कुत्तें देखे, पर कभी आवारा या दलबदलू भेड़ें सड़क या विधानसभा के आसपास नहीं देखीं।”
दूसरी रचना ‘प्रजातन्त्र की बस’ बहुत ही प्रहारक रचना है, जिसका आरम्भ ही प्रचंड है, जब व्यंग्यकार पंच “सरकारी गाड़ी है, इसलिए धक्का परेड है” से शुरुआत करता है। वे आगे लिखते हैं कि इस बस को लोग सात दशकों से धक्का लगा रहे हैं लेकिन बस यथावत खड़ी है। आईएएस, मंत्री, न्यायपालिका और असामाजिक तत्व टाइप धकियारे दाएँ, बाएँ, आगे, पीछे से दम लगाकर धक्का दे रहे हैं लेकिन बस सरकने का नाम नहीं ले रही। क्योंकि वे प्रजातन्त्र का अर्थ समझ गए हैं। बेचारा, ड्राइवर (सरकार का मुखिया) क्या करें! क्योंकि धकियारे उसकी भी नहीं सुनते। ‘प्रजातंत्र की बस’ वह रचना है जो पाठकों को जवाब ढूँढने के लिए छोड़ जाती है। परसाई जी के कथनानुसार व्यंग्यकार उत्तर नहीं देता बल्कि वह पाठकों में उत्तर ढूँढने की समझ पैदा करता है।
‘दो टांग वाली कुर्सी’ में कुर्सी के लिए मची मारामारी पर व्यंग्यकार ने चुटकी ली है कि “मुझे लगता है दुनिया में अधिकांश लोगों को सही ढँग से कुर्सी पर बैठना नहीं आता।” वे कुर्सी से आगे जाकर फिर लिखते हैं कि “हर कुर्सी में सिंहासन बनने की निपुणता नहीं होती।” पदों पर कुंडली मारकर बैठे सत्ताधीशों पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं कि “कुर्सी का मान रखना हो तो कुर्सियों की आभासी कमी बनाए रखना जरूरी है।” ‘भैंस की पूंछ’ में उन्होंने हिंदी के शुभचिंतकों की चिंताओं का दूध का दूध और पानी का पानी किया है। “हिंदी नाम की जो भैंस है बस उसको दोहना सीख जाएँ तो उनके घर में दूध-घी की नदियां बह जाए।” रचना ‘ऐ तंत्र तू लोक का बन’ में लोकतंत्र के मायने गिनाए हैं कि लोकतंत्र का लोक मर चुका है, प्रजातंत्र में से प्रजा मार दी गई है, जनतंत्र में से जन गायब हो चुका है। बस तंत्र बचा है। जनता के लिए तंत्र मतलब बाबाजी का ठुल्लू। कुछ इसी मिजाज की रचना ‘संविधान को कुतरती आत्माएँ’ है। संविधान का सन्धि विच्छेद करते हुए व्यंग्यकार संविधान को कुतरने वालों चूहों का विच्छेदन करते चला है। लिखा है- “संविधान का जरा सा हिस्सा कुतरो तो ‘विधान’ शेष बचता है। उसे कुछ और कुतरो तो ‘धान’। कुतरने की प्रक्रिया निरंतर रहे तो धन दिखता है।”
‘आदानम प्रदानम सुखम’ में यह कहकर कि “विकास की गंगा में आचमन करना हो तो हर जगह पंडे बैठे हैं” यत्र-तत्र-सर्वत्र बैठे रिश्वतखोरों पर तंज कसा है। ‘डिमांड ज्यादा थाने कम’ में शिल्पगत नया प्रयोग है कि किस तरह थानेदार जैसे लाभ के पदों की नीलामी होती है। ‘लॉक डाउन में दरबार’ और ‘भूलोक के हैकर’ में मिथकीय प्रयोग की रचनाएँ है जिसमें पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर इक्कीसवीं सदी की विद्रूपताओं पर संवाद शैली की बढिया रचनाएँ बुनी हैं। ‘इसे दस लोगों को फॉरवर्ड करें’, ‘चार हजार नौ सौ निन्यानवें मित्र’, ‘आवाज आ रही है’, ‘बागड़बिल्लों का नया धंधा’ आज के सर्वप्रिय विषयों पर लिखे गए व्यंग्य हैं लेकिन कहन का अंदाज अलग है।
‘साठोत्तरी साहित्यकार का खुलासा’ में जीवन के मध्यबिंदु पर खड़े साहित्यकारों की अंतर्वेदना है। ‘पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें’ और ‘व्यंग्यकारी के दांव-पेंच’ रचनाओं में एन-केन-प्रकारेण व्यंग्यकार बन बैठे अलेखकों को आइना दिखाया है। मध्यप्रदेश के ठेठ वनवासी अंचल झाबुआ से निकलकर कनाडा के टोरंटो में बैठकर व्यंग्य लिखने वाले धर्मपाल महेंद्र जैन दूरदृष्टि सम्पन्न व्यंग्यकार हैं। जन के मानस स्तर पर जाकर व्यंग्य निकालना वे बखूबी जानते हैं। मुझे पक्का भरोसा है कि ‘भीड़ और भेड़िए’ आप पढ़ना शुरू करेंगे तो पढ़ कर ही रहेंगे। शुभकामनाएँ।
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