चंदन; कुछ तो कहो!

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देवताओं को भी भाते हो

मनुष्यों को भी प्रिय 

अपने सौंदर्य और सुगंध से;

दिव्यता की अनुभूति कराते हो,

लेकिन चंदन _

एक बात पूछना चाहता हूं,

देखो सत्य बतलाना

सांपों से इतना व्यामोह क्यों?

सदा तन पर लपेटे रहते हो।।

बचपन से सुनता आया हूं

बुराई भागती है अच्छाई से

देवताओं के समीप नहीं आते दानव 

पर तुम तो गुणकारी वृक्ष हो,

सर्वगुण संपन्न हो

साहित्य में बड़ा मान है

देवताओं का श्रृंगार हो

तुम्हारे सत्प्रवृत्तियों का _

आखिर कुटिल विषधर सांपों से

कहीं कोई मेल दिखता तो नहीं है

कहो तुम्हें फिर सांपों से प्यार तो नहीं?

दरअसल तुम मुखौटा हो

समाज में रहने वाले लाख-लाख सांपों का

मानवी वेश धारण करने वाले विषधारों का

तुम्हीं से प्रेरणा लेकर

ये कुटिल नाग के वंशज

मानवता के चंदन से लिपटे रहते हैं

उसे डंसते रहते हैं।

लेकिन समाज चंदन नहीं है

तुम्हारी तरह अप्रभावी नहीं रह पाता

और आज यह जहर फैल रहा है,

समाज भूजंगों का बसेरा बन रहा है

तुम चुपचाप खड़े हो, चेतनहीन होकर

कहो! चंदन कुछ तो कहो!

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अजय कुमार झा “तिरहुतिया”

कोलकाता (पश्चिम बंगाल)