बचपन में
प्रश्न मेरा पीछा करता
कि रातें क्यों?
पता लगते ही
कि रातें धीमे धीमे
मृत्यु की आदत डालने के लिए है
रात से मैं प्रेम करने लगा
दिन भर किसी तरह
वियोग के दर्द को सहकर
रात होते ही
मृत्यु को गले लगाता
आतुर शरीर बनकर
हर रात
कुछ घंटे ही सही
मृत्यु के साथ रमके
अपने घोंसले में लौट आता हूँ
न स्वाप्निक दशा न जागृतावस्था
एक निश्चिंत प्रातः में
सामने टकराता सपना
किन्हीं प्राचीन मृत्यु रहस्यों को
खुलकर बताता है
एक बार
जीने के रहस्य को पाने के बाद
मृत्यु नहीं लगती
उतनी निर्दयी
रूठकर घर से जा चुके
बच्चे को
ढूंढकर लाना
उसे सीने में छिपाते हुये
बिलखकर रोने जैसा
अनुभव ही तो मृत्यु है
डॉ टी महादेव राव
विशाखापटनम (आंध्र प्रदेश)