गॉव का मेला था,
मगर
हर शख्स भीतर से अकेला था,
बीत गया जो ,
लोग उसे बचपन कहते हैं,
ओ शख्स भी बड़ा अलबेला था, घूम रहा था ,
ऊपर नीचे जो एक झूला था,
कसी और बंद मुठियों में कैद किये हुये
कुछ ख्वाब,मन में उमंग लिये हुये ,
आँखों से चमक रहा ओ भीड़ से एकदम अलग किनारे,
कोई नन्हा सा बच्चा अकेला था,
जैसी भी रही हो उसकी शकल ओ सूरत,
मगर ओ भी मुझ सा ही,
मेले में तन्हा नया नबेला था,
झूम रहे थे खुशी से सब संगी साथी
मन से बस मैं उदास अकेला था,
संग यारो का रेला था ,
आर ज़े मैने देखी थी एक तस्वीर शोर सराबे की
मगर कुछ गुब्बारे लिये हुये दुखी शांत,
स्निग्ध एक बूढ़ा बाप अकेला था,
नही थी चिंता जब अपने गैरो की
दुनिया बड़ी निराली थी बचपन में अपने शैरो की,
अचानक रखे मैने चंद सिक्के ,
उस नन्हें से फरिश्ते की हथेली पर,
सहसा खुशी से उछला वह अकेला था,
सुकून से बीता इस बार अपना मेला था…
किसी की याद में एक बाप.. एक बच्चा..
एक माशूक और मैं भी बहुत अकेला था |
अजहर रहमान अध्यापक आर ज़े माही कवि शायर सम्पर्क :- 8172923929