( 1 )
एक दिन..
समुंदर ने कहा, रेत से –
सुनों ,
मैनें यात्राएं तो बहुत की हैं
गुजरा हूं प्रत्येक गली से ,
यहां तक कि
बादल बन
घूम आया हूं आसमां भी ,
पर, कोई भी कहां पहचान सका मुझे..
सिर्फ तुम ही ने स्वीकार किया है मुझको
अंतस तक !!
रेत निशब्द ही रही..
अंगीकृत करती रही चुपचाप
समुंदर की एक-एक बूंद को
हृदय में !!
( 2 )
एक दिन..
रेत ने कहा, समुंदर से –
सुनों ,
मैं स्वयं को भी कहां छू सकी थी
अब तक ,
तुम्हारे स्पर्श में ही
स्वयं को महसूस किया है मैंने ,
अब तक बिखरी हुई थी बहुत
तुममें सिमटकर ही संभल पायी हूं !!
भाव-विह्वल समुद्र निशब्द ही रहा
नम आंखों से
रेत को सिमटाने लगा फिर से !!
नमिता गुप्ता “मनसी”
उत्तर प्रदेश, मेरठ