“हम सब गांधीजी के तीन बंदर है “

भ्रम की क्षितिज पर खड़े ज़िंदगी ढ़ो रहे है। जीनी है गर ज़िंदगी शान से तो सवाल पूछने के लिए मुँह खोलना होगा, अन्याय देखने के लिए आँखें चौड़ी करनी होगी और सच सुनने के लिए कानों को सतेज करना होगा!

जो हम में से कोई हिम्मत नहीं करेगा। जब तक आग हमारी दहलीज़ को नहीं छू रही हमें क्या? हम तो सलामत है! यही मानसिकता इंसानियत को ले डूबी और विद्रोही सोच को अपाहिज कर दिया। हम डरपोक है, कायर है, कठपुतलियाँ है।

जनता को हिन्दुत्व और सनातन धर्म से सच में प्रेम है ये तो नहीं पता, शायद भगवान के नाम का ख़ौफ़ है! तभी धर्म के नाम पर हम से कोई कुछ भी करवा ले हम यंत्रवत कर जाएँगे, बिना ये सोचे कि समाज के लिए हितकर है या नहीं।

पर दूसरे अहम् मुद्दों से पल्ला झाड़ लेंगे। 

अच्छी बात है हम अंग्रेजों की गुलामी वाले दौर में पैदा नहीं हुए, अंधे, बहरे, गूँगे क्या ख़ाक़ आज़ादी दिलवाते। गनीमत है 75 सालों पहले बहादुर वीरों ने अपनी जान की कुर्बानियां देकर देश को मुक्त करवाया। आज की पीढ़ी जहाँ देश के मुद्दों को नज़र अंदाज़ करते पीठ दिखाकर भाग रही है वह क्या लड़ती अंग्रेजों की कूटनीति के आगे। यही हाल होता, और सब चुप है तो हमें क्या। कोई किसी भी मुद्दे को छेड़ कर अपनी ऊँगली जलाना नहीं चाहता। पत्रकार और लेखक अगर सरकार या तंत्र विरुद्ध कुछ लिखने की हिम्मत करते है, तो डरा धमका कर चुप करवा दिया जाता है। जनता को एक होकर हर मुद्दों पर सवाल उठाते अपने हक और अधिकार के लिए आवाज़ उठानी चाहिए।

अंधेर नगरी चौपट राजा सा हाल है। सामाजिक सैंकडों मुद्दें शिकारी जानवर की तरह मुँह फाड़े खड़े है! पुलिस, प्रशासन, सरकारी अफ़सर कछुए की चाल से काम कर रहे है। कुछ मुद्दों को राजकीय दबाव, या गुंडों की धमकी से डरकर दबा दिए जाते है। हर कोई होता है, चलता की सोच लिए अपने आप में व्यस्त और मस्त है। 

आलसी जनता… ये समय चुप रहने का नहीं, मृत पड़ी मानवीय संवेदनाओं को जगाने का समय है। धृतराष्ट्र बने रहेंगे तो मानवीय सियासत का पतन निश्चित है। नतमस्तक बन हम ये कैसे समाज में जी रहे है? जब भी सोचते है हमारे आस-पास हो रही घटनाओं के बारे में तब आहत होते मन चित्कार कर उठता है आख़िर कब तक? कहाँ जाकर रुकेगी ये दिल को झकझोरने वाली आँधियां। इंसानी दिमाग साज़िशो की फ़ैक्ट्री होता जा रहा है।  एक दूसरे को गिराने में, लूटने में माहिर होते जा रहे है। इन सारी घटनाओं की कौनसी परिधि आख़री होगी। इस धुआँधार बहते मुसलसल अपराधों के किनारे तो होते होंगे की नहीं ? हम सब ये सोचते तो है पर मौन रहते है। तमाशबीनों का देश नूराकुश्ती करता रहेगा। सियासत में माखौल के प्रयोग किए जा रहे है। एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में सियासी स्तर तू-तू मैं-मैं की शतरंजी चाल चलते इतना गिर रहा है की आम इंसान हतप्रभ है। अपने ही चुने हुए बाशिंदे उन्हें नौच खा रहे है।

“हर क्षेत्र में नकारात्मकता हावी हो गई है” लोकतंत्र में जनादेश सर्वोपरि है पर यहाँ कटुता और द्वेष की राजनीति में आम जनता पिस रही है, पर आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं कर रही।

“लकवाग्रस्त समाज लग रहा है” खोखले दावे ओर झूठे वचनों से भरमाते सब अंधियारे कुएँ में कूद रहे है। सब पारदर्शी समाज की आस में तो बैठे है पर हिम्मत नहीं, विद्रोह की शुरुआत कौन करें? सबको अपनी ऊँगलियाँ बचानी है कौन आग में हाथ डालकर पोरें जलाना चाहेगा। कब तक आँखों में नश्तर से चुभते द्रश्य देखने पडेंगे। ज़हरिली घटनाओं के मलबे से कौन निकालेगा उर्जा सभर झिलमिलाता सूर्य। कौन रक्त रंजित धरती को मुक्त कराएगा? संकीर्ण मानसिकता वाले दरिंदे घुटनों तक सन गए है। इस गहनतम पीड़ा सभर ये जो समाज दिख रहा है, उससे से निजात पाने कोई क्यूँ छटपटा नहीं रहे।

कोई तो दहाड़ लगाओ, कोई तो सोए हुओं को जगाओ। अभी कितने दशक बिताने होंगे यूँही गुमसुम से देखते हुए जलते समाज को। चलो मिलकर खुद को मुखर कर लें एक जेहाद ये भी जगा ले अन्याय के ख़िलाफ़ मुहिम चलाएँ।।

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर