निरपराध*

दर्द भूख का था,रोना गरीबी का

चीख निकली छत-छप्पर का

खून-अश्रु बहे तुच्छ तीतर का

सोंचते रहे हल निकलेगा

आज नही तो कल निकलेगा

आस लगाकर देखते रहे

वो रोटियाँ अपनी सेंकते रहे

हमारे घर के मसला को 

परिवर्तित कर दिये असला में

धर्म से समाधान ढूँढने लगे

फिर बचे गृह को भी फूँकने लगे

आजीविका के साधन माँग रहे थे

मूल भूत सुविधा आह्वान रहे थे

जब-जब चाहे तनिक आह्लाद

हर बार मिला दंगा-फसाद

अब खो दिए उस नन्हे सपनों को

जो पास थे सब अपनों को

यह सब माजरा समझ न आया

कुर्सी का दायरा समझ न पाया

शायद वह जाने वाली थी

खिली फूल मुरझाने वाली थी

इसीलिए जान की आफत बन गये। 

निरपराध हम सूली चढ़ गये।। 

चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति

जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)