स्टेट प्रेस क्लब मध्यप्रदेश के रूबरू कार्यक्रम में इप्टा प्रमुख
इन्दौर | छोटे से वामपंथी दलों का छोटा सा हिस्सा बनकर रह जाना इप्टा की बड़ी भूल थी। इप्टा को केवल विरोध का स्वर नहीं बनना चाहिए, बल्कि मित्रता का स्वर बनना चाहिए, तभी वह आगे बढ़ सकेगा। नई शिक्षा नीति में थिएटर को अनिवार्य किए जाने का प्रावधान तो है लेकिन उसे अमल में नहीं लाया जा रहा है। ये बातें भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा के अध्यक्ष नाटककार, निर्देशक, एनएसडी के पूर्व निदेशक एवं लेखक प्रसन्ना ने स्टेट प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश द्वारा आयोजित रूबरू कार्यक्रम में कहीं। उन्होंने कहा कि कुछ लोग चाहते हैं कि इप्टा सदैव विरोध का स्वर बना रहे, जबकि उसे मैत्री का स्वर बनना चाहिए। वामपंथी दलों से संबद्ध बने रहने को भी श्री प्रसन्ना इप्टा की भूल मानते हैं। उनकी नज़र में इप्टा एक राष्ट्र निर्माण करने वाली इकाई है। वे थिएटर के कलाकारों के फिल्म और टीवी में जाकर वहीं के होकर रह जाने से कहीं न कहीं आहत नज़र आते हैं। सुप्रसिद्ध अभिनेता इरफ़ान, पंकज त्रिपाठी जैसे सितारों के रंग गुरु रह चुके श्री प्रसन्ना कहते हैं थिएटर के मंदिर में नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों को न बैठाएं, वहां सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर जैसे कलाकारों को बैठाएं जिन्होंने पूरे समर्पण से नाटक को समृद्ध किया है। उनका विरोध इन कलाकारों से नहीं है लेकिन सिनेमा को नाटक नहीं समझना चाहिए।
प्रसन्ना के अनुसार नाटक के स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित होने के लिए दर्शकों का सपोर्ट सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। नई पीढ़ी के रंगकर्मियों के कुछ समय बाद रंगकर्म से दूर होने को लेकर वे उनमें धैर्य और समर्पण की कमी बताते हुए याद दिलाते हैं कि मल्लिकार्जुन मंसूर 68 वर्ष की उम्र में महान कलाकार माने गए और अगले 18 वर्ष उन्होंने सिर्फ अपनी कला का उत्सव मनाया। वे मानते हैं कि रंगकर्म से आजीविका चलाई जा सकती है। इसके लिए ज़रूरी है कि शैक्षणिक संस्थानों से रंगकर्मी अनुबंध या फीस लेकर जुड़ें और विद्यालयों से कहें कि हम आपके विद्यार्थियों को भारत की संस्कृति सिखाएंगे। आज भारत के विद्यार्थी बाबा बाबा ब्लैक शीप जैसी बेकार सी अंग्रेजी कविता तो जानते हैं लेकिन कबीर, तुकाराम, निराला को नहीं जानते। नई शिक्षा नीति में बहुत सी खराबियां है लेकिन उसमें एक अच्छी बात यह है कि उसमें स्कूली शिक्षा और यहां तक की बी एड जैसे टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम में भी थिएटर को अनिवार्य स्थान दिया गया है। यदि यह धरातल पर लागू हो जाए और रंगकर्मी एजुकेशनल थिएटर करने लगें तो नई पीढ़ी को भारत की संस्कृति का ज्ञान भी होगा और रंगकर्मी भी थिएटर से ही आजीविका कमा सकेंगे। रंगकर्मी बीच बीच में पैसे कमाने के लिए थोड़े समय के लिए फिल्म या टीवी में जाएं और फिर वहां से वापस लौट कर पुनः रंगकर्म में लग जाएं।
प्रसन्ना देश की सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं की संस्कृति के लिए कुछ ना किए जाने का आरोप लगाते हुए अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हैं। उनके अनुसार देश के सांस्कृतिक बजट का अधिकांश हिस्सा हिंदी की संस्थाएं ले जाती हैं तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाएं और हिंदी की ही अन्य बोलियां उपेक्षित रह जाती हैं। वे सवाल करते हैं कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एनएसडी ने बंगाली, पंजाबी, उड़िया आदि थिएटर के लिए क्या किया ? वे इस सवाल का जवाब नहीं दे पाते कि आखिर क्यों विशेषकर हिंदी में नए अच्छे नाटकों का अभाव हो गया है तथा बरसों पूर्व लिखे गए नाटक आज भी खेले जा रहे हैं। वे इसका एक संभावित कारण अच्छे लेखकों को फिल्म और टीवी द्वारा खींच लिए जाने को मानते हैं। रंजीत कपूर का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि फिर लेखक न घर का बचता है और न घाट का। वे कहते हैं कि थिएटर सहज माध्यम है, फिजिकली इंसान को इंसान के सामने करना है। नाटक एक्सप्रेशन, भाषा, भाव सिखाता है। फिल्म में तो एक व्यक्ति अमिताभ बच्चन बन जाता है और अनगिनत एक्स्ट्रा बनकर रह जाते हैं। श्री प्रसन्ना के अनुसार देश की संस्कृति की रक्षा के लिए नाटक को ज़िंदा रखना ज़रूरी है।
कार्यक्रम के प्रथम चरण में स्टेट प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश के अध्यक्ष प्रवीण कुमार खारीवाल ने अंग वस्त्रम से प्रसन्ना का स्वागत किया। प्रसन्ना से भारत में रंगकर्म की वर्तमान दिशा – दशा पर सवाल पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी आलोक बाजपेयी ने पूछे। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष विनीत तिवारी एवं पत्रकार पंकज क्षीरसागर ने स्मृति चिन्ह भेंट किया। प्रसन्ना के साथ रोचक सवाल जवाब को सुनने बड़ी संख्या में रंगकर्मी एवं संस्कृति प्रेमी उपस्थित थे तथा अभिनव कला समाज का हॉल का पूरी तरह भरा होना शहर में नाटक विधा के प्रति बढ़ते उत्साह को बयान कर रहा था। श्री प्रसन्ना ने इस स्तरीय आयोजन के लिए स्टेट प्रेस क्लब की मुक्त कंठ से तारीफ करते हुए कहा कि किसी समय ऐसे आयोजन देश के प्रेस क्लबों में हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसे जागरूक और संवेदनशील प्रेस क्लब न के बराबर ही बचे हैं।