तुम तो ठहरे नेता जी…

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657 

चेला ढुलमुलदास ने विज्ञापनों से भरे समाचार पत्र में से एक ऐसी खबर पढ़ ली कि वह गहरे चिंतन में डूब गया। यह देख गुरु ठनठनलाल चिलम का कश धुआँ करते हुए उससे पूछने लगे – “बच्चा! किस चिंता में खोए हो? चिंतन-मनन करना तो हमारा काम है। कुछ काम हमारे लिए भी छोड़ दो और बताओ कि तुम्हारी दुविधा क्या है?”

“गुरुजी! इस समाचार पत्र में एक ऐसे नेता की तस्वीर है जो बिना काम किए चुनाव जीते जा रहा है। एक समय ऐसा भी आया कि उसकी गुमशुदगी के पोस्टर निर्वाचन क्षेत्र भर में लगाए गए। एग्जिट पोल में भी इसकी हार तय बताई गई। यही सब सोचकर खोपड़ी चकरा रही है।”

“बच्चा! अभी तुम कच्चे हो। राजनीति जितना दिखाती है उससे कहीं ज्यादा छिपाती है। इस दिखाने और छिपाने की कला में जो माहिर होता है, वही सफल माना जाता है। वही लगातार जीतता है। वही संतरी, मंत्री और प्रधानमंत्री बनता है।”

“गुरुजी! समझा नहीं। कृपया मेरा पथ प्रदर्शन करें।”

“बच्चा! मुझे पता है कि मेरी बातें तुम्हारे एक कान से होते हुए दूसरे कान से निकल गयी। खोपड़ी में घूसने के लिए कान नहीं हृदय चाहिए। मैं तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ। ठीक तुम्हारे समाचार पत्र के नेता टाइप का। एक बंदे ने अपने विधायक से स्थानीय जर्जर अस्पताल भवन को लेकर शिकायत की। जर्जर भवन बड़ा ईमानदार था। समय-समय पर अपने को भग्न करता रहता था। उसके ढहने की हालत जब-तब की हो गयी थी। नेता अस्पताल निर्माण की बात को लेकर चार साल तक टालता रहा। चुनाव सिर पर थे। आखिरकार नेता ने बंदे की बात मान ली। भवन दर्शन कर अपनी कृपा दिखाई। उधर भवन ने भी विधायक और बंदे पर अपनी कृपा दिखाई। परिणामस्वरूप विधायक और बंदे को अस्पाताल में भर्ती करवाया गया। दोनों के कपड़े खून से लथपथ थे। डॉक्टरों ने विधायक को बताया कि आपको कोई चोट नहीं लगी है। यह खून तो उस बंदे का है जो आपको भवन दिखा रहा था। उसकी खोपड़ी पर बाईस टांके पड़े हैं। विधायक को अचानक क्या सूझा पता नहीं कि उसने तुरंत अफरा-तफरी में प्रेस मीट बुलाई। घोषणा की कि  मैं इन्हीं खून के धब्बों वाले कपड़ों पर नए अस्पताल भवन का उद्घाटन करूँगा। मुझे अपनी जान से ज्यादा जनता की परवाह है। अगले दिन फुटबॉल जैसे बड़े-बड़े अक्षरों में उनका कथन प्रकाशित हुआ। लोगों की दया-सहानुभूति वोट के रूप में बदल गयी। विधायक जी फिर से जीत गए। उन्होंने अपने वादे के अनुसार अस्पताल के नए भवन के लिए नींव डाली। देखते-देखते चार साल गुजर गए। फिर से चुनाव सिर पर थे। बाईस टांकों वाला वही बंदा फिर से उनके सामने खड़ा था। इस बार वह नींव पर भवन बनाने की गुहार लगा रहा था।”