मैं द्रोपदी

पांचाल राजकुमारी

जिसे जीत धनुर्धर अर्जुन ने

बाँट दिया मुझे किसी वस्तु की भाँति पाँच पुरुषों में

मैं सबकी बनी पत्नी

मेरा देवर मेरा पति

मेरा जेठ भी मेरा पति

कभी किसी ने मेरी नहीं सुनी

मेरे अंतर्मन में क्या है

किसी ने नहीं सुना

मैं बस हर रात

बारी-बारी से पाँचों पांडवों की आगोश में जाती रही

एक स्त्री का कई पुरुषों से सम्बन्ध

आज जिसे नगरबधू की संज्ञा से नवाजा जाता है।

जब भरी दरबार में

मेरा शील हरण हो रहा था

तब मेरे पाँच पति

नपुंसको की भाँति

तमाशा देख रहे थे।

वीरों से खचाखच भरे दरबार

भी मेरे अंगों को नजर चुराकर दर्शन करना चाह रहे थे

पुरुषों की इच्छा भी तो यही रहती है

तभी तो आज बलात्कार संस्कार बनी हुई है भारत की,

मुझे जुए में हारा,बिना मुझे बताए

मैं तो बस उनके लिए एक सामान थी

तभी तो बँटा गया था पाँचों में

सभी वीर कायर बन मेरा चीरहरण देख रहे थे

सबके मन में यह बात रही होगी

कि कब मैं नंगी होऊं और वे नयन रसपान करें।

किसी ने अपना धर्म नहीं निभाया

ना धर्मराज ने,ना सर्वश्रेठ धनुर्धर ने

ना पितामह ने,ना गुरु द्रोणाचार्य ने

सभी धृतराष्ट्र सा अंधा होने का अभिनय मात्र कर रहे थे।

गोपियों के वस्त्रों के चोर मुरलीधर आए

उन्हें पता था वस्त्रविहीन नारी,

और उसकी लज्जा का मर्म,

करके मेरी रक्षा,वे परम् पिता परमेश्वर कहलाये।

मैं द्रोपदी,पाँच पतियों की पत्नी

कब से अपनी व्यथा सुनाना चाह रही थी

पर कलमकारों ने जमाने के डर से कभी

 अपनी कलम को मेरी व्यथा,पीड़ा जानने नही दिया

मैं सिसकती रही,तड़पती रही

अपनी व्यथा सुनाना चाहती रही

पर माता कुंती ने कभी मुझे बोलने की हिम्मत नहीं दी।

मेरा शोषण किया

जैसे आज स्त्री ही स्त्री की शत्रु बनी हुई है

स्त्री को सामान समझने वालों

जान लो इस जन्म के बाद तुम्हें भी स्त्री बनना होगा।

और अगर फिर भी प्रतिकार नहीं किया

 तो अगले जन्म में किन्नर बनना होगा।

फिर मर्दों की कारस्तानी को 

ताली बजा-बजाकर सुनाते फिरना।

जब-जब स्त्री पर जुर्म हुआ है

तब-तब ग्रन्थकारों ने इसे लीला का नाम 

देकर समाज से उठती हुई विद्रोह का दमन किया है।

यह कोई लीला नहीं,सिर्फ एक खेल मात्र है जिसमें

स्त्री मर्दों के हाथों की कठपुतलियां होती है

वो जैसा चाहे वैसी भूमिका करवा लेता है हम स्त्रियों से

कभी आग के हवाले कर दे,

कभी धरती के हवाले

कभी पँखे से झूला दे,तो कभी कुंवें में भेज दे।

इतिहास साक्षी है:-

अग्नि परीक्षा कभी पुरुषों की नहीं हुई

वे कभी सती नहीं हुए

उनका शीलहरण-चीरहरणकभी नहीं हुआ।

महेश”अमन”

आर के महिला महाविद्यालय, गिरिडीह झारखण्ड