जब आरती उतरे

       दिन – करवा चौथ। आदमी खुश। आज तो आरती उतरेगी। बाकी दिनों चाहे जो उतरे ! वे हमेशा से उतारतीं आ रहीं हैं । जब – जब चढ़ी, उन्हींने उतारी। …जब चढ़ती है तो उतरेगी ही। …वे उतारेंगी ही। 

        अर्धांगी होने के नाते मैंने आधा काम किया- चढ़ाई।

 बाद में उनने उतारी; मगर आज की बात अलग है। आज पूरा जिम्मा उन्हीं का है। उन्होंने  यह काम, बाक़ायदा, ‘कम्पनी’ में आते ही हाथ में ले लिया था और तब से बिना नागा सालाना दर से उतारतीं आ रहीं हैं। 

यूँ काफी दिन पहले से कलेंडर देखा जाता है और देखते हुए एलान किया जाता है कि अमुक माह के अमुक दिन को करवा चौथ पड़ रही है। गाहे – बगाहे इसकी पुनरावृत्ति भी होती रहा करती है। हर बार पुनरवृत्ति के साथ कुछ धन बहिर्गमन कर जाता है, उनके अलंकरण की वस्तुओं के आगमन के एवज में।  इस बीच जब भी उनकी किसीसे बात होती है तो यह ज़िक्र ज़रूर किया जाता है कि’ करवा चौथ ‘ आ रही है। आप करतीं हैं – पूछने पर यदि नकारात्मक उत्तर मिले तो उत्तर प्रदात्री को ऐसे देखा जाता है जैसे उसने तीन दिन से नहाया न हो लिहाजा बहुतों के लिए तो उपवास श्रद्धा या मनोकामना पूर्ति के बजाय सुसंस्कृत पत्नियों की पंक्ति में खड़े रहने का उपक्रम मात्र है। हालांकि हमारी ‘ये’ ऐसी नहीं हैं। इनके हावभाव में श्रद्धा टिक टॉक के वीडियो जैसी परिवार के साथ- साथ रिश्तेदारों तक में जाहिर है। इन्हें जल तक नहीं लेना है इस बात को ‘कोरोना के नए स्ट्रैंड’ की तरह भयानक तरीके से प्रचारित किया जाता है। इसके परिणाम स्पष्ट दिखाई पड़ रहे हैं।उनके इस भावी त्याग के दबाव में पूरा घर है। कोई आज के दिन ‘इनसे’ कुछ नहीं कहता। आज तो बच्चे भी पापा को ही मम्मा जैसा समझ रहे हैं…सेम टू सेम। खिलाने- पिलाने –  धुलाने से ले कर नेपी बदलने तक का झंझट , सब मेरा। आज समझा फेरों के समय लिए गए सात वचनों में एक का मर्म – जो तेरा है सो मेरा। 

       इनसे किसी काम के बारे में न कहा जायजाय; यह एक दिन पहले ही कह दिया गया था। परिजनों के बीच रेड अलर्ट सा जारी हो गया;  तो भी सवेरे – सवेरे उन्होंने अपने त्याग और मेरे आलस की बानगी पेश कर ही दी। अब इत्ते जल्दी कौन याद करता है कि कल इनका कठिन समय है जल्दी उठा जाय। वैसे आदमी सोचता अच्छा ही है। एक दिन पहले ही सोच लिया था- शिकायत का मौका नहीं दूँगा, एक ही दिन की तो बात है। सोचते- सोचते सोया। उठ कर फिर सोच में डूब गया। एक तगड़ी झिड़की ने उबारा वर्ना अब तक तो कहीं दूर निकल गए होते…नींद ही में। हमने सफाई दी , अपने सोचने को ले कर । उनका टका सा जवाब आया- केवल सोचने से कभी कुछ हुआ है? 

       इधर ये ख़ुद भी सोचने में पीछे नहीं हैं ;  सोचतीं हैं किसी दिन इनकी भी आरती उतरे। कोई इनके लिए भी दिन भर अन्न- जल का त्याग करे। चलन हो तब न! अभी बहुत लिंग भेद बना हुआ है। सारा ख़त्म हो तो चांस बने। पता नहीं महिला सशक्ति करण वालों का इस ओर ध्यान कब जाएगा! बस ले दे कर वही भ्रूण हत्या और बालिका शिक्षा पर अटके पड़े हैं। 

       परिपाटी को निभाने के लिए  इन्हें ऐसे त्योहारों की लिस्ट विवाह योग्य होने पर मौखिक रूप से सौंप दी गई थी जिन्हें करने से मेरी और मुझ जैसों की आयु बढ़ती है। ये लिस्ट याद किए हैं। माता जी को भी कंठस्थ है। सम्भवतः उनकी माता जी को भी रही हो। आज के शिक्षित समाज में जहाँ स्त्रियाँ बाहरी काम भी संभाले हैं, पुराने वाले काम ,उनके , जस के तस हैं। मजाल है कि कोई उनकी लम्बी उम्र के लिए किसी तरह का व्रत तो छोड़ो, टोटका ही बता दे। उन्हें लम्बी आयु धारी माना लिया गया है…बाबा आदम के ज़माने से। वे ख़ुद भी इसकी हामी हैं।… या फिर यह मान लिया गया है कि उनकी आयु कितनी भी रहे, अधिक महत्व पूर्ण नहीं है। वे बच्चों की सलामती के लिए भी कोई न कोई व्रत करती हैं और पूरे परिवार की खुशहाली के लिए भी। 

       देखिए दिन भर बीत गया। साँझ हुई तो पूजा की तैयारियां शुरू हुई। छत पर जा कर चाँद देखने का काम भी मेरे ही हिस्से आया। वे तैयार हो रहीं हैं। उनका श्रृंगार चल रहा है।  आरती हमारी होनी है। इधर चाँद बादलों से आइस- पाइस खेल रहा है। मैं सोच रहा हूँ चाँद को बारी बारी से दोनों के लिए निकलना चाहिए। एक बार मैं इनके लिए आरती उतारूँ, एक बार ये मेरे लिए। अब मुझे चलनी की तरफ देखने का आदेश मिल चुका है। मैं देख रहा हूँ। चाँद कह रहा है। हज़ार छेदों वाली चलनी भी कह रही है – तुम भी इनके लिए निर्जला रह कर देखो , किसी दिन…इनके लिए सोचो भी … इनकी लम्बी ज़िंदगी और सेहत वगैरह के बारे में…जब आरती उतरे। आरती, थोड़े देवत्व की माँग करती है। 

अनीता श्रीवास्तव

मऊ चुंगी टीकमगढ़

मध्यप्रदेश

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