राग़ों से रौशन हुआ ये जहांँ है।
अंधेरा दिलों से मिटा पर कहांँ है।
ये मासूम चेहरे जो तकती हैं राहें,
उम्मीदें हैं दिल में ज़ुबां पे हैं आहें,
नहीं पैरहन है बदन को मयस्सर,
ये जलते चराग़ों को तकती निगाहें,
ये रौनक़ फक़त चार दिन की यहांँ है।
चराग़ों से रौशन हुआ ये जहांँ है।
कहीं भूख है तो कहीं सिर्फ आंसू,
सिसकते बिलख़ते हैं इंसान हरसू,
रही ना किसी को किसी से मोहब्बत,
दिलों से हैं ग़ायब मोहब्बत की खुश्बू,
ये आंगन है सुना खुशी अब कहाँ है।
चराग़ों से रौशन हुआ ये जहांँ है।
हैं बाज़ार में अब तो रिश्तें भी बिकते,
हैं अहबाब भी सिर्फ मतलब से मिलते,
है दौलत से शोहरत से ओहदे से मतलब,
लुटी आबरू है कहीं टूटे सपने,
है कहने को अपना पर अपना कहाँ है।
चराग़ों से रौशन हुआ ये जहांँ है।
ये गलियांँ ये रस्तें ये ग़ुर्बत के मारे
जिये ऐसे कैसे यही सोचें सारे
न घर है न मंज़िल न कोई ठिकाना,
मिटाएं कहां भूख अपनी बिचारे
जिधर देखिये मुफ़लिसी ही यहाँ है।
चराग़ों से रौशन हुआ ये जहांँ है।
ज़रीन सिद्दीक़ी(दिल्ली)