हाँ
प्रकृति हूँ मैं
दृष्टिगोचर हो रही
इस नारी की सूरत में
तुझे अरे मानव
जान और मान ले
मैं हूँ माता तेरी
कैसा सुंदर रूप था
कभी मेरा
वनस्पतियों से भरपूर
सुंदर हरी भरी धरा
उच्च हिमशिखर
गहरी नदियाँ, सरोवर, सागर
नीलाभ गगन में
तैरते हुए विभिन्न
आकृतियों वाले पयोधर
समंदर में उठती
उर्मियों पर तैरती नाव
गाते हुए मल्लाह
जीवन से भरे गीत
अपनी ही मस्ती में
खिली रहती थी तब
मुस्कान लबों पे मेरे
किन्तु आज देख
कैसी उदासी सी तारी है
मुझ पर
शायद तन्हाई से
होने लगी हूँ ख़ौफ़ज़दा
अब नहीं रहा वक़्त
किसी के पास
निहारने का सौंदर्य मेरा
चूँकि अतिदोहन
व करतूतों से अपनी
मानव तू
उतारू है नष्ट करने को
रानाई और संतुलन मेरा
कर देता था जो
मंत्रमुग्ध हर किसी को
कहाँ रही अब वो
प्राणवायु
रखती थी सबको स्वस्थ
करती थी दीर्घायु
आज वायु, जल, ध्वनि
जाने कितने ही
प्रदूषण फैला दिए तूने
दम घुटने सा लगा है
अब तो मेरा भी
यदि प्रकृति रूपी
माँ ही नहीं होगी स्वस्थ
तो कैसे उसकी
संतान नहीं होगी
अल्पायु
करती हूँ विनय तुझसे
चेत जा ओ मानव
अप्रत्यक्ष रूप से
तू ही है
अपनी प्रगति संग
विनाश का भी कारण
●प्रतिमा पंकज तोड़ी
शाहदरा, दिल्ली -32