उस जरूरी वादे की तरह..

शायद नहीं बढे मेरे कदम

वक्त के साथ-साथ

पर, ठहरकर संजोया है मैंने

बिखरी धरोहरों को,

माना नहीं संभाल सकी

हर संभव कोशिश में भी

तुम्हारे डगमगाते समीकरण ,

पर स्वयं को बांधे रखा सदैव ही

परंपराओं से ,

माना नहीं जीत सकी अब तक

सामाजिक कुरीतियों से ,

पर, नहीं हारना भी

जीतने से कम है क्या ,

माना बहुत बार बिखरी हूं

मन के टूटे टुकड़ों संग ,

पर महसूस करती रही चुभन उनकी

अंत तक ,

स्वयं से किए

“उस जरूरी वादे” की तरह !!

सुनों..

माना, मैं नहीं कुछ कह सकी “मन का”

पर क्या ज़रूरी था तुम्हारा

“तब मौन” होना ही !!

नमिता गुप्ता “मनसी”

उत्तर प्रदेश, मेरठ