दृढ़ता की दीवार के दरकने के मायने …!

  गुरुनानक देव जयंती प्रकाश पर्व पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से क्षमा मांगते हुए साफ मन ओर पवित्र ह्रदय से तीनों कृषि कानूनों को वापिस लिए जाने की घोषणा करते हुए कहा कि हमारी तपस्या में कहीं कोई कमी रह गयी है। हम कुछ किसानों को कानून की अच्छाइयां समझा नहीं पाए। दरअसल इस कथन से यह तो स्पष्ट है की सरकार के नजरिए से यह कानून देश के अधिकांश किसानों के हित मे है। प्रधानमंत्री के इस फैसले में मजबूरियां साफ दिखाई दे रही थी। इन कृषि कानूनों को वापिस लेने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण सामने आ रहा है,जिसकी चर्चाएं भी राजनैतिक हलकों में चल रहीं है,उसके अनुसार उक्त फैसला पंजाब,उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश,गोवा,मणिपुर  राज्यों में होने वाले विधानसभा सभा चुनावों के मद्देनजर लिया हुआ माना जा रहा है। असल मे चुनाव ही वह सबसे बड़ा कारण नजर आ रहा है। जिसने दृढ़ प्रधानमंत्री को किसान कानूनों को वापिस लेनें पर मजबूर कर दिया है। साल भर से देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसान इन कानूनों को काले कानून मानकर वापिस लिए जाने की मांग कर रहें है। पंजाब, हरियाणा और यूपी की सियासत इस आंदोलन से गहरी प्रभावित दिखाई दे रहीं है। सालभर से जारी किसान आंदोलन में 700 से अधिक किसानों की जान चली गयी। देश की राजधानी में जारी किसान आंदोलन में सबसे अधिक भागीदारी भी पंजाब,हरियाणा,यूपी के किसानों की दिखाई दें रहीं थी। इन चुनावी राज्यों में किसान बहुत बड़ा फेक्टर है जो चुनावी परिणामों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकतें हैं। पश्चिम बंगाल के चुनावी परिणामों पर भी किसान आंदोलन के असर से इंकार नहीं किया जा सकता है जहा लोकसभा जैसी सफलता विधानसभा में भाजपा को नहीं मिल पाई किसानों ने पश्चिम बंगाल जाकर भाजपा के खिलाफ माहौल भी बनाया था। हाल ही में हुए उपचुनाव के परिणाम भी सरकार के अनुकूल नहीं आ सके। अभी जिन राज्यों में चुनाव होना है, उनमें उत्तरप्रदेश सबसे बड़ा राज्य है जो राजनैतिक दृष्टि से अहम भी है। यूपी से गुजर कर ही दिल्ली का रास्ता तय किया जाता है। यूपी चुनाव के पूर्व एक ही एजेंसी के तीन सर्वे में भाजपा के प्रदर्शन को लगातार कमजोर बताया जा रहा है।  एक सच्चाई यह भी की  किसान आंदोलन में भले ही दो तीन प्रदेशो की बड़ी भागीदारी देखी जा रहीं हो किन्तु इसका सन्देश राष्ट्रव्यापी होता जा रहा था। इसमे सबसे प्रमुख किसानों को लेकर सत्ताधारी दल की भाषा जो बेहद कड़वी एवं नकारात्मक थी। सत्ता समर्थकों द्वारा वाट्सएप पर किसानों के विरुद्ध मुहिम चला रखी थी, जिससे परिणामस्वरूप कृषि कानूनों के समर्थक किसानो की भी सत्ताधारी दल से नाराज बढ़ती जा रहीं थी। यूपी के लखीमपुर खीरी की घटना भी इसी किसान आंदोलन से जुड़ी है। जिसका गहरा काला दाग भी सत्ताधारी दल के दामन को कलंकित कर रहा है। वर्षभर से जारी किसान आंदोलन से किसानो ओर सत्ताधारी दल के बीच मे आक्रोश बढ़ता जा रहा था। यह सब भी बड़ी वजह रही कि किसानों के हित मे बने कानूनों को वापिस करने की घोषणा प्रकाश पर्व के दिन देश के प्रधानमंत्री को करने पर मजबूर होना पड़ा। यह फैसला कितना सही है या गलत है। इसका निर्णय करना अभी उचित नहीं होगा। प्रधानमंत्री की इस घोषणा के बाद आंदोलनकारी किसानों में हर्ष व्याप्त है,आंदोलन स्थल पर मिठाईयां बाटी जा रहीं है। विपक्ष भी इस घोषणा पर हर्षित,उल्लासित नजर आ रहा है। काँग्रेस नेता राहुल गांधी ने लिखा “देश के अन्नदाता ने सत्याग्रह से अंहकार का सर झुका दिया।” दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बोले “आज के दिन बड़ी खुशी मिली तीनो कानून रद्द। आंदोलन में 700 से ज्यादा किसान शहीद हो गए,उनकी शहादत अमर रहेंगी आने वाली पीढियां याद रखेगी कि किस तरह अपनी जान की बाजी लगाकर किसानी ओर किसानों को बचाया था।” प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद विदेशी अखबारों ने भी खूब लिखा अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने कृषि कानूनों को वापस लिए जाने पर अपना विश्लेषण लिखा है, जिसका शीर्षक है ‘किसानों के गुस्से के आगे मोदी सरकार का सख्त मिजाज नहीं चला।’ अखबार आगे लिखता है प्रधानमंत्री मोदी पीछे हटने के लिए नहीं जाने जाते हैं। वाशिंगटन पोस्ट के विश्लेषण में शायद बेहद महत्वपूर्ण बात लिखी है। जिसका देश के लिए खासा महत्व है। आंदोलन की ताकत और राजनैतिक  मजबूरियों के चलतें अपने निर्णयों पर अडिग रहने वाले पीएम नरेंद्र मोदी की अडिगता ओर सख्ती प्रभावित हुई है। भारत सहित विश्व मे प्रधानमंत्री मोदी सख्त फैसले लेने वाले नेता के रूप में जाने जाते है। गुजरात के अपने मुख्यमंत्री काल के बाद भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उनके निर्णय दृढ़ ओर मजबूत इच्छाशक्ति वाले दिखाई देते है। इस लिहाज से वें भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समकक्ष ओर कहीं-कहीं तो उनसे भी आगे दिखाई दे रहे थै। जम्मू काश्मीर से धारा 370 हटाने का विषय हो या तीन तलाक कानून  या फिर नोटबंदी लागू करने का निर्णय मोदी ने दृढ़ ओर सख्त निर्णय लेकर बहुत सी पूर्व निर्मित धारणाओं को तोड़ते हुए देश के सामने निर्णय लेने वाले नेता की छवि बनाई है। अपने लिए फैसलों पर अडिग रहने और जनता के मध्य उन फैसलों को सही ठहराने का राजनैतिक कौशल भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में दिखाई दिया है। कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला शुद्धरूपेण राजनीति से जुड़ा हुआ निर्णय है। असल में अपने सख्त निर्णयों पर अडींग रहने वाले देश के प्रधानमंत्री को चुनावी मजबूरियों ने कानून की वापसी के लिए बाध्य किया है,यह हमारे सिस्टम की बड़ी खोंट ही कही जा सकती है कि अच्छा नैतृत्व चुनाव जिताऊ होना चाहिए। देश की जनता भी शायद चुनावी विजयी को नेता की नैतृत्व कुशलता का पैमाना मान लेती है। इसमें कोई संदेह नही है कि अपने 7 वर्षीय कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने देश को नवीन ऊंचाइयां प्रदान की है। यह भी सच है कि अपनी दृढ़ ओर अडिग छवि के कारण ही वह वैश्विक नेता के तौर पर उभरे ओर देश को भी गौरवान्वित किया है। पांच राज्यों के चुनाव में कृषि कानूनों की वापसी का सत्ताधारी दल के प्रदर्शन पर क्या असर होगा यह तो चुनाव के बाद ही मालूम होगा। किंतु किसान कानूनों की वापसी के फैसले से अपनी दृढ़ ओर अडिग छवि के लिए विश्व विख्यात भारत के प्रधानमंत्री की छवि पर फर्क जरूर पड़ेगा। यह भी देखना होगा कि पीएम अपने आगामी फैसलों से अपनी छवि को कितना कायम रख पाते है। इतना जरूर है कि इस घोषणा से सख्त मिजाजी ओर अडिगता प्रभावित हुई है। दृढ़ता की दीवार के दरकने के अपने मायने है। जिसका देश की राजनीति पर गहरा असर होगा। प्रधानमंत्री की अडिग ओर कभी न झुकने वाली छवि इस फैसले से दरक जरूर गयी है। शायद चुनावों में जीत की मंशा से ही से तीन कृषि कानून को वापिस लिए जाने की घोषणा प्रधानमंत्री ने की हो। इस घोषणा के बाद उनकी अडिग ओर कभी न झुकने वाली छवि प्रभावित जरूर होगी।

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नरेंद्र तिवारी ‘पत्रकार’

मोतीबाग सेंधवा

 जिला बड़वानी मप्र

मोबा-9425089251