ज़रा एक रोज़ मिलकर देखूं तो..

धूप के इस लंबे से सफ़र में, अब तो थोड़ी “छांव” मिले

कदमों को थोड़ा संभालूं, दो कदम और चलकर देखूं तो !! 

पता है न..”वक्त” के ही पास है, हर एक “मर्ज की दवा”

सुनों,परखूं ज़रा उसको, मैं भी एक बार गिरकर देखूं तो !!

सुना है..झूठा नहीं होता इंसा,वो होता है जब भी नशे में

मैं भी सुनूं ज़रा मन की,बस इक बार बहक कर देखूं तो !!

न जानें ये दौर है कैसा, समझे कोई “जज़्बात” भी कैसे

चलो छोड़ो तेरा बदलना, आज़ मैं ही पिघलकर देखूं तो !!

वो अक्सर सिमट जाते हैं “शब्दों” में “एहसास” बनकर

लो मैं भी “मन के जज्बातों” को पन्नों पे लिखकर देखूं तो !!

यूं तो पूछ लेती हूं अक्सर,इन हवाओं से ही “तेरा पता”

आज़ इस हवा में, खुद ही “दुप्पटे” सा लहरकर देखूं तो !!

‘मनसी’, राह तकती रही “जिसकी” ये आंखें कब से ही

तड़प उसमें भी है कैसी, ज़रा एक रोज़ मिलकर देखूं तो !!

नमिता गुप्ता “मनसी”

उत्तर प्रदेश , मेरठ