दुःख कहें या सुख जिन्दगी का एक सिलसिला है,
कहीं टपकता बूंद है,तो कहीं कहीं सुखा गिला है।
अगर दुख न होता तो सुख को कहां से लाते हम,
सब सुखी ही रहते तो भला देवालय क्यों जाते हम।
कुछ उधार नहीं मिलता यहां सबकुछ चुकाना है,
सबकुछ लुटेगा बाजार में जो भी दिखा खजाना है।
आज एक आदमी जब नेक राह पर भी चलता है,
उसके जहन में आगे पीछे के अनेक बात पलता है।
कोई नहीं आया यहां यहीं बनकर उठना सबको है,
हंस लें दुःख में भी हम बाकी ज्ञान तो रब को ही है।
यहां अब सब छुपा कर रखते हैं अपने अपने को,
कोई जान न ले जान के दुःख सुख और सपने को।
बच्चे हंसते हैं और बहुत खुब हंसते हैं हम-सब पर,
कुछ तो यथार्थ दिखाओ ना अब दिखाना कम कर।
हंस लिया करो सह लिया करो कुछ दिन के आहें,
मिलेगी मंजिलें भी बता रही हैं कुछ बदलती राहें।
ढका तो सही तन नहीं मन को छुपाया है आदमी,
दुःख घर पर छोड़कर आज बाहर आया है आदमी।
जहां कुछ नहीं देखा वहां भी सब साफ़ देखा है,
दुःख तो सही है सुख देता है मैंने इंसाफ देखा है।
-आलोक रंजन
कैमूर (बिहार)
9155113056