तब माँ ज़िन्दा थीं । चलने फिरने में बहुत मुश्किल होने लगी थी । फिर भी बाहर बालकोनी के उस कोने में रखी प्लास्टिक की उस बदरंग सी कुर्सी पर अक्सर जा बैठतीं, जहाँ सुबह सवेरे धूप का एक गोरा सा टुकड़ा उनका इंतज़ार कर रहा होता । धूप बालकोनी के उसी हिस्से में आती थी, वो भी कुछ देर के लिए । कई बार माँ नहाने जातीं तो पिताजी चुपके से उनकी जगह बैठ जाते । माँ नहाकर आतीं तो पिताजी को पहले ही वहाँ बैठा देखकर कुड़कुड़ाने लगतीं । पिता जी उनको देख कर शरारत से मुस्कुराते और कुछ देर बाद कुर्सी खाली कर देते । माँ धड़ाम से आकर धूप वाले कोने पर कब्ज़ा कर लेतीं । पिताजी अंदर आकर खिड़की के शीशे में से उन्हें देखते रहते ।
अब माँ नहीं हैं लेकिन पिताजी उस धूप वाले कोने में अब नहीं बैठते । पत्नी ने बालकोनी के उस हिस्से में तुलसी का एक पौधा लगा दिया है और उसके पास मिट्टी के एक कसोरे में पानी रख छोड़ा है । एक चिड़िया अक्सर वहाँ आकर बहुत बोलती है ।
पिताजी कमरे की खिड़की के काँच में से उसे एकटक देखते रहते …………
दो वर्ष हुए पिताजी भी गोलोक चले गए । पत्नी ने बालकनी के उस हिस्से में एक जैसी दो कुर्सियां रख दी हैं । धूप दोनों कुर्सियों पर आधी आधी बैठती है । बस अब वो चिड़िया कहीं दिखाई नहीं देती ………
( रवि ऋषि )
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