ये मन

ये मन कभी शून्य सा विस्तृत होता हैं

कभी जलधि से गहरा होता हैं।   

ये मन कभी परिंदो सा उड़ता हैं

कभी पिंजरे में कैद सा रहता हैं।

ये मन कभी तटिनी सा बहता रहता हैं

कभी उत्स सा गिरता रहता हैं।

ये मन कभी भास्कर सा रोशन रहता हैं

कभी यामिनी सा काला रहता हैं।

ये मन कभी नग की ऊँचाई को छूता हैं

कभी पाताल के तल को देखता हैं।

ये मन कभी प्रसून सा खिला रहता हैं

कभी शूल सा तीखा रहता हैं।

ये मन कभी अतीत से जंग लड़ता हैं

कभी भविष्य के सपने बुनता हैं।

ये मन कभी प्रेम में डूबा रहता हैं

कभी नफरत से भरा रहता हैं।

ये मन कभी परायों में अपनों को खोजता हैं

कभी अपनों में बेगानों सा रहता हैं।

ये मन कभी मन, मन के वश में नही रहता हैं

तितलियों सा मँ डराता रहता हैं।

गरिमा राकेश गौत्तम

 कोटा राजस्थान