ढाई आखर प्रेम का

ढाई आखर प्रेम का लिखने बैठी जब चंद अल्फ़ाज़

बन गए गीत ग़ज़ल नज़्म और बजने लगा साज़

कोयल भी गाने लगी और पपीहा देने लगा आवाज़

मधुर कलरव गान पर सृष्टि को भी होने लगा नाज़ 

उठने लगी तरंग मेरे हृदय में मचने लगी हलचल

सूखे मरुथल में तो दरिया भी बहने लगा कलकल

हया से झुके हुए पर व्याकुल है मिलन को नैन

साजन बिन कहाँ आता है प्रेमी युगल को चैन

याद आने लगी मुझको वो पुरानी प्यार की बातें

तेरे मेरे मिलन की वो खूबसूरत चंचल रातें

जहाँ मिलते थे हम कभी वो फूलों के सुंदर बाग में

सर्द रातों में हाथ थामे गुनगुनाते थे मधुर राग में

छेड़ गई है मधुर रागिनी आज बसंतपंचमी की निशा

वो पुरानी सी बेंच पे बैठ सपनो को देते थे जो दिशा

मेरा ठंड से ठिठुरना और तुम्हारा मुझे गले से लगाना

बहुत याद आता है वो तेरे साथ हँसना मुस्कुराना

वो निस्वार्थ प्रेम निश्चल हँसी मेरे लिए जीना मरना

कोरे कैनवास पे मेरी कृति उकेर कर उसमें रंग भरना

लगता है जैसे ये सारी कल की ही मधुर मीठी बात है

बरसों बाद आज हमारे फिर से मिलन की रात है

देखो मेरे साथ साथ ये चाँद तारे को भी है इंतज़ार 

धरती पंछी फूल पत्ते दिन रात सब मिलन को है तैयार 

धरती ओढ़ ली सरसो की सुंदर पीली चुनरिया

प्रेमालिंगन में आतुर हो जैसे कोई नई दुल्हनिया

मिलन की होगी पराकाष्ठा सर्वत्र छाई खुशियां

करने लगा पवन भी शोर और मचलने लगी नदियां

धड़कन के जैसे बढ़ती ही जाए नदियों की रवानी

ढाई आखर प्रेम में कैसे लिखूं तेरी मेरी प्रेमकहानी ❓

डॉ प्रणिता राकेश सेठिया ‘परी’

रायपुर-छत्तीसगढ़

9024240624