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पुरुष !
जिसे जाना जाता है
कई रूपों में
कभी पिता बन जीवन को
वात्सल्य से भर देता है
कभी सुहागन औरत के
प्रेम को अमर कर देता है
कभी भाई बन
राखी के धागे में
हिम्मत भर देता है
तो कभी बेटा बन
जीवन भर सेवा करते करते
चिता को अग्नि दे जीवन से
मुक्त कर देता है
दिल तो उसका भी धड़कता है
पर ये कौन सोचता है
कि दर्द उसे भी होता है
पुरूष पर बंदिशें भी कम नहीं
वो खुल के रोये
यह जमाने को मंज़ूर नहीं,
घर की ज़रूरतों को
पुरा करने में वह
अपने सपने खो देता है
चंद पैसों के लिये
ख़ुशियों को भूल जाता है
पुरूष हमेशा
आर्थिक स्तर पर ही
तौला जाता रहा हैं
कभी कठोर तो कभी भावहीन
ख़िताबों से नवाज़ा जाता रहा हैं
दिल उसका भी दुखता हैं
ये कोई समझ
क्यों नहीं पाता हैं !
● रीना अग्रवाल, सोहेला (उड़ीसा )