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मां !
पूछना चाहती हूं तुमसे –
कहां रख आती हो तुम
अपनी आंखों के दुख ?
कपड़ों की तही के नीचे दबा देती हो
या बो आती हो तुलसी के नीचे
हमसे छिपाने के लिए ।
हमारी नज़रों से बचाने के लिए
कहीं जला तो नहीं देती
चूल्हे में ही झट से !
शायद पोंछ देती होगी
चश्मे के साथ – साथ उन्हें भी
बना कर जमी हुई धूल का बहाना
फिक्र की लकीरें
माथे पर तो नहीं दिखती
फिर कहां बहा आती हो सारे संताप ?
कभी नहीं देखी कि तुम्हारे पास कोई
रहस्यमयी संदूक है
जो अक्सर गृहणियां रखे होती हैं
बरस दर बरस उनमें
जमा करती जाती है
अपनी छोटी-छोटी पूंजी ,
नहीं देखी कभी ऐसी कोई डिब्बी
फिर कहां संजोती हो सपने
अपनी आंखों के ?
आकांक्षाएं और अभिलाषाएं ?
अरे नहीं !
न तो तुम्हारी आंखों में रहते हैं
और न ही तो घर के किसी कोने में ।
जानती हूं मैं,
बाकी सब भी जानते हैं –
ये घर तुम्हारा है पूरा का पूरा
जहां चाहे, जैसे चाहे रख सकती
हो हर एक चीज़
फिर भी कभी नहीं देखी
इच्छाओं को तुम्हारी आंखों से
निकल कर घर में टहलते हुए
क्योंकि उन्हें पसंद है
तुम्हारी भूरी आंखों में बंद रहना
सहज और सुरक्षित हैं वे
इन दो भूरी पृथ्वियों में !
जैसे कि हम सब ।
● सोनाली, वसई (महाराष्ट्र)