सब कुछ सहती,कुछ नहीं कहती,
कब सोती, कब जगती है ।
अधरों पर मुस्कान लिए, चुपके से रो लेती है ।
दिनभर खटती,दहलीज़ को पार न करती,
संस्कारों में लिपटी,परम्पराओं में उलझी।
पति और बच्चों को अपना संसार समझती,
एक मासूम सी लड़की, जब पत्नी से माँ है बनती ।
दिल का दर्द, मन की थकन
कोई समझ न पाए,
आँसू बहकर गिरे नहीं , कोई देख उन्हें न पाए।
बहती आँखों के कोरों को,आँचल से है पोंछतीं ।
ऐसी ही होती है माँ….
किसको कब क्या चाहिए, कैसे समझ लेती है वो।
लखते जिगर परेशानी में, स्वयं जान लेती है वो।
दुआ माँगती रब्ब सेअपने,ग़म उसके मिल जाएँ मुझे ।
वो सुखी रहे, उम्र मेरी भी लग जाए उसे।
ऐसी कयूं होती है माँ….
चुपचाप सब सहकर, संसार अपना बनाती है,
निरन्तर संघर्ष वो करती है,आशियाने को बचाती है ।
बार-बार संभलकर,लड़ाई वो जारी रखती है ।
कयूं और कौन हैं वो, हस्ती को उसकी जो मिटाते हैं ।
प्रतिरूप को देकर जन्म अपने,
आजीवन प्रताड़ना सहती है,
हार नहीं मानती, भगवान से भी लड़ जाती है ।
वो कौन सिर्फ़ माँ ही होती है ….
धरती पर आने के लिए,भगवान को भी माँ की जरूरत होती है ।
जैसे बिना शक्ति, शिव भी शव हो जाते हैं ।
वैसे ही बिन माँ के,सब रिश्ते सूने हो जाते हैं ।
किरन बाला थरेजा
सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक
भारत सरकार, कृषि मंत्रालय