शीशे से रौशनी निकलती है,
लपक पड़ते हैं आदमी के बच्चे!
एक बूँद रेत में गिरकर,
मिटा देती है स्वयं को।
रात का दर्द नहीं छपता है,
सुबह के अखबार में ।
सर्दी से ठिठुरते जिस्म को
सेंकती है कारखाने की आग|
हवा के बदलते ही तमाम संबंध
हो जाते हैं ताश-महल |
आसमान में उड़ते कबूतर की
गर्दन दबा देती है चील |
अपनी किस्मत पे रोते हैं,
डाल से गिरे पीले पत्ते!
बेगानेपन की चोटी से गिर कर
आत्मघात करती हैं इच्छाएँ,।
टूट कर गिरते हैं,
स्वप्न के चमकीले पंख।
पत्थर पर पछाड़ खाती लहरों में
सिर धुनती है कोई उम्मीद।
डूब जाता है चुपके से
दुख की भीड़ में दिनमान ।
तिलस्मी खोह में,
हँसते हैं शैतान।
इधर शब्दों की अर्थहीनता से
ऊबकर , बोलने लगी हैं अब आँखें ।
वक्त एक काँपती लौ -सा
तय कर रहा है अँधेरे का सफ़र |
संजय कुमार सिंंह
नयानगर मधेपुरा बिहार।