नज़्म 

ढूंढ रही थी मेरा नाम, तेरी हथेली की लकीरों में

मिला नही मुझको वो, तेरी हथेली की लकीरों में ।

तेरी सुरमई अंखियों में, अक्स मुझे मेरा दिखता है

फिर क्यों दिखती नही, मैं! तेरी हथेली की लकीरों में ?

आँख से आँसू छलके तो भी, मिलन के पल आते नहीं 

क्या विरह ही लिखा है मेरा, तेरी हथेली की लकीरों में ?

रखना चाहते हो तुम, मुझको ! हर पल तुम अपने करीब

किस डर से नही बसाते मुझको, तेरी हथेली की लकीरों में ?

जैसे चंपा पाना चाहती है, भ्रमर के होठों का मीठा रस

चाहे ‘ मन बंजारा ‘ छपना , तेरी हथेली की लकीरों में ?

रूपल उपाध्याय ‘ मन बंजारा ‘