औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

कड़ी हो धूप चाहे वर्षा घनघोर

ठिठुरा देनेवाली सर्दी 

या टपकते पसीने का मौसम

हर ऋतु में वह घर भर में सबसे पहले उठती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

साल के 365 दिन कार्यरत रहती है

घरेलू तो घरेलू, नौकरी पैशा भी

काम से लौटती है काम पर

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

चाहे मायके में लाख परेशानियाँ क्यों न हो

ससुराल के खुशी में मुस्कुराती है 

अंदर अनगिनत तूफान क्यों न उठ रहे हो

मौन वह अपना कर्तव्य निभाती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

कितनी ही तकलीफ क्यों न हो

पति के कामयाबीं पर हर्षाति है

अपने लिए कभी सोचती ही नहीं

सुख, सौन्दर्य, सब कुछ त्याग देती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

धनिये के लिए सब्जी वाले से लड़ पड़ती है

मकान को घर बना परिवार सजोती है

माँ-बाप से पहले सास-ससुर का करती है

दूसरे के वंश के लिए अपना वंश छोड़ देती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

घर चलाने के साथ देश चलाती

गांव हो या शहर मातृत्व का पालन करती 

बे-वजह घर भर से सुनती है 

कई बार सही होकर भी चुप रहती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

कभी बाबुल के पगड़ी के लिए 

पूरे जीवन का समझौता कर लेती है

भूल अपनी पीड़ा हर रिश्ता निभाती है 

वह औरों की अनकही भी समझ लेती, पर

दशा उसकी किसी को समझ नहीं आती है

फिर भी, औरतों में तो समझ होती ही नहीं…

डॉ. चम्पा प्रिया, बैंगालुरू 7002417854