अद्भुत होते हैं सपने अलौकिक,
शुरु कर देते हैं पलना,
किसी भी एक जोड़ी आँखों में,
अंतर भी नहीं देखते
अमीरी – गरीबी का
औरत और आदमी का ।
बनी रहती है उनकी निरन्तरता ,
ढलने लगते हैं,
परिस्थितियों के हिसाब से,
गढ़ लेते हैं ख़ुद को,
ज़रूरतों के हिसाब से,
मनःस्थिति से सजते हैं,
तो कभी योग्यता से वे पलते हैं
और प्रायः इन सबसे ऊपर,
बहुत ऊपर वास्तविकता और
कल्पना की सीमाओं पर तैरते,
जीते या दम तोड़ते हैं ।
कभी आँसुओं के साथ
पलकें साझा करते हैं ;
कभी आशाओं की नैया पर सवार
सुख से हिलोरे लेते,
अपने पूरे होने के दिन गिनते ।
बहुत भोले होते हैं ये सपने,
देखो ना, पल रहे हैं मेरी आँखों में,
और उन्हें भान ही नहीं
मेरी पराधीनता का,
उन अनकही अपेक्षाओं का,
जो झलकती हैं
किसी और की आँखों से
मेरे समर्पण के बदले में ;
मेरे बंधनों का जो थे तो सामाजिक,
न जाने कैसे हो गए मानसिक ;
उन सीमाओं का ,
जो खींच रहा था वो मेरे सामने,
और मैं खड़ी देखते रही
हथियार ड़ालकर अर्पण के नाम ,
उस लम्बी फेहरिस्त का,
जिसमें हर एक नंबर पर थे,
मेरे कर्तव्य और बस कर्तव्य,
कर्तव्य सबके प्रति —
और ख़ुद के प्रति
एक अधिकार -सपने देखने का
बस एक शर्त के साथ
कि न देखे जायें सपने,
उनके पूरा होने के लिए !
रचना सरन ,कोलकाता,प0बं0