कामनाओ का आन्चल

कामनाओं का आँचल विस्तृत है

मन की निर्झरी पर अनगिन बाँध है

कभी लोकवाद तो कभी प्रतिवाद

सावन की जल धारा भी 

नहीं भिगो पाती है इस आँचल को

जबकि अभी तो 

तोष की बूंदों का मौसम है

स्वप्निल आकाश में चमकते हैं

प्रत्यशाओं के अनगिन ज्योतिर्बिंदु

पर ये भी नहीं जानते हैं

संबंधों के अभ्यारण में 

भटके राही को राह दिखाना

उम्मीद की चंद्रप्रभा जानती है

क्षीण से क्षीणतम होते जाना

देह नहीं जानती हैं वो भाषा

जिसमें होंठ बुदबुदाते हैं मंत्र

और दृष्टि की भाषा से 

अपरिचित होते हैं होंठ

परिचय अपरिचय की इस सांठ गांठ में

मन ये कभी जान ही नही पाता है

कि कब अपेक्षाओं से लदे भाव 

तुलनात्मक होकर द्वेषी हो जाते है

श्वेता राय,,देवरिया,उ0प्र0