उन्वान – भंवरा
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बे ताब है कितनी ये कलियां भंवरों के समा’अत से
बैचेन हैं इस ओर भी भंवरा डालियों के नज़ाकत से
मेरे जुनून की बात ना कर सदा मुझसे वज़ूद तिरा है
टुटा हूं जर्रा – ज़र्रा अब खौफ़ नहीं तिरी अदावत से
चढ़ आई तिरे रूख़सारों पर शफ़क़ के मानिंद सुर्खी
मैं तिरे अहले ए जुनूं में फिक्रमंद रहा हिफाजत से
शिकस्ता है मिरा सर तिरी मुक़म्मल वफ़ा के आगे
मुसलसल मैं रहा नादानी में तलबग़ार इसमुहब्बत से
हौसला मेरा पस्त हूआ देख कर तुम को सेहराओ में
कुछ मेरी ख़ता है सो परहेज़ नही तिरी शिकायत से
नुमांया था मैं भी कभी इन अमीरजादों के हिसार में
ख़ौफ़ज़दा हूं मैं वक्त ए दस्तो में अहल ए तोहमत से
और कितने सितम करोगी ‘मीर’ मुझ को उल्फत में
हर सा ‘अत मुझे तल्खी लगे हैं हर दिन बशारत मे
✍️ दिलीप वर्मा’मीर’
आबूरोड़ जि-सिरोही ( राज.)
मौ.नं:-9587752075
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समाअत = सुनना। मुकम्मल = पुराण
नज़ाक़त = कोमलता। मुसलसल = लगातार
जुनूं= दिवानगी। सेहरा = रेगिस्तान
वज़ूद = अस्तित्व। नुमायां = नामवाला
जर्रा = टुकड़े। हिसार = चक्र
अदावत = दुश्मनी। सा’अत = क्षण
शफ़क़ = अस्त होते सुर्य के प्रकाश की लालिमा
सुर्खी = लाल सिन्दुरी रंग तल्खी = कडवा
मानिंद = तरह। बशारत = अच्छी खबर
अहल ए जुनूं = प्रेम उन्माद से ग्रसित
शिकस्ता = झुका हूआ