क्या सब कुछ बदल जायेगा?

अपने गर्भ में 

तारीख महीनों को पाल रहा 

कैलेण्डर जनेगा 

एक और नया साल 

जिसकी रेखा की बुनियाद पर 

भविष्यवक्ताओं का भविष्य टिका है 

तो क्या यह मान लिया जाय 

यह बदलाव का वर्ष होगा

सब कुछ बदल जायेगा 

दिलों पर लगा जख्म सूख जायेगा

जो उग आया है 

नागफनी की तरह 

जिसने सीखा है पनपना 

विस्तार में है 

जिसका विश्वास 

नहीं सीखा 

संसर्ग में रहकर भी उसने 

चिरकाल तक  दौड़ता रहा अंधी दौड़

हर बार हारता रहा

इसे बावजूद 

उसकी महत्वाकाक्षांएँ 

उसकी आँखोँ की रौशनी के विकीर्ण 

होने की सबसे बड़ी बाधक थी 

उसे छद्माभास था 

कि नहीं हो सकता

 मेरा प्रतिस्पर्धी वह 

क्योंकि 

कंगूरे तक पहुंचने के लिए 

कितनी माँगों का सिंदूर मैंने पिया है 

और कितनी सिसकियों की

सीढ़ियों पर चढ़कर 

आज अवस्थित हूं मैं 

वह निरीह, लाचार 

कछुआ क्या जाने!

सम्पूर्णानंद मिश्र 

शिवपुर वाराणसी