बिन बात के सड़कों पर

फिर कोई शोर उठा है

बिन बात के सड़कों पर

फिर कोई भटक रहा है

बिन बात के सड़कों पर।

चूल्हा, अगन बिन तरस रहा है

उजड़े घर, छत बिन परेशान

लजा रहा तन वस्त्र बिना है

क्रन्दन बस्ती की पहचान

झूठ, विकास को बेच रहा है

बिन बात के सड़कों पर

फिर कोई भटक रहा है

बिन बात के सड़कों पर।

दफ़्तर से लिखी जाती है

हर रोज़ मुकद्दर, मेहनत की

मज़दूरों के भाग्य कहाँ है?

एक पल रोटी जन्नत की

दिखा रहे वे स्वप्न सुनहरे

बिन बात के सड़कों पर

फिर कोई भटक रहा है

बिन बात के सड़कों पर। 

ऊँचे-ऊँचे महलों में

चीत्कार दब गए सन्नाटों के

कौन कफ़न का दर्द सुनेगा?

आगे विकसित भारत के

‘रंजन’ गीत ये सुना रहा है

बिन बात के सड़कों पर

फिर कोई भटक रहा है

बिन बात के सड़कों पर।

– राजीव रंजन झा

टीकरी कलाँ, दिल्ली-११००४१

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