नई दिल्ली । आगरा के समीप यमुना नदी के किनारे बसा सराय जजाऊ मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकार की निर्णायक लड़ाई का साक्षी रहा है। जजाऊ भले ही आज गुमनाम सा गांव हो, लेकिन इसका ऐतिहासिक महत्व अनमोल है। यह उस दौर की कहानी कहता है जब सत्ता के लिए खून बहाया गया और इतिहास की दिशा बदली। यह विरासत आज संरक्षण की बाट जोह रही है, और आने वाली पीढ़ियों को यह धरोहर तभी मिल पाएगी, जब इसके संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास किए जाएं। औरंगजेब की मृत्यु के बाद 20 जून 1707 को उसके बेटों के बीच सत्ता को लेकर जबरदस्त संघर्ष हुआ। औरंगजेब ने अपने उत्तराधिकारी की कोई घोषणा नहीं की थी, बल्कि वसीयत में केवल इतना लिखा कि बेटों को साम्राज्य आपस में बांट लेना चाहिए। लेकिन सत्ता की चाह ने भाईयों को आमने-सामने ला खड़ा किया। इसी संघर्ष में जजाऊ की भूमि पर औरंगजेब के बेटे मुहम्मद आजम शाह और मुअज्जम के बीच युद्ध हुआ, जिसमें आजम शाह और उनके तीनों बेटे मारे गए। मुअज्जम ने इस युद्ध से एक दिन पहले ही 19 जून को अपना राज्याभिषेक करवा लिया था और जीत के बाद वह बहादुर शाह प्रथम के रूप में गद्दी पर बैठे।
यह जजाऊ वही जगह है जहां आज भी एक पुरानी मुगलकालीन सराय मौजूद है। इस कारवां सराय की संरचना अपने समय के यात्रा केंद्रों की तरह थी – ऊंची दीवारों से घिरी, मजबूत प्रवेश द्वारों वाली, यात्रियों के आराम के लिए कोठरियों से सजी और पश्चिम दिशा में एक ऊंचे चबूतरे पर बनी मस्जिद से सुसज्जित इस सराय में अब भी दो भव्य दरवाजे, तीन गुंबदों वाली मस्जिद और एक हौज बचा हुआ है, जिसका इस्तेमाल आज भी स्थानीय लोग करते हैं। हालांकि अंदर से सराय की स्थिति काफी खराब है। अब यह एक आवासीय क्षेत्र बन चुका है जहां दर्जनों किसान परिवार रहते हैं, जिनके घरों के पास कृषि उपकरण और मवेशी देखे जा सकते हैं। सराय की पुरानी कोठरियां आज इन घरों का हिस्सा बन चुकी हैं, और कुछ जगहों पर तो इन पर दो या तीन मंजिला निर्माण भी हो चुका है। इस सराय की उम्र का पता मस्जिद की किबले की दीवार पर लगे एक संगमरमर की पटिया से चलता है, जिस पर अरबी में खुदा हुआ शिलालेख 1674 ईस्वी की तारीख को दर्शाता है। यानी यह सराय औरंगजेब के शासन काल में बनाई गई थी। मुगलों के समय में ये सरायें व्यापारियों और यात्रियों के लिए विश्राम स्थल होती थीं। सुरक्षा के लिहाज से मजबूत संरचना और सुविधाओं की उपलब्धता ने इन्हें जरूरी बनाया था।
औरंगजेब के बाद की अराजकता में जब ग्रामीण इलाकों में असुरक्षा बढ़ी, तब लोग सराय की चारदीवारी के भीतर आकर बसने लगे। सराय से कुछ ही दूरी पर एक तीन मंजिला बावड़ी भी मौजूद है, जो लाल बलुआ पत्थर से बनी है। यह बावड़ी अब उपेक्षा का शिकार है और स्थानीय किसान इसका उपयोग भंडारण के लिए कर रहे हैं। पास ही एक पुराना मुगल पुल भी है, जो अब झाड़ियों में छिप गया है, लेकिन कभी यह मुगल राजमार्ग का अहम हिस्सा था। ब्रिटिश यात्रियों ने इसे 20 मेहराबों वाला भव्य पुल बताया था, जिसके दोनों सिरों पर मीनारें थीं।