दिवाली के दिये

दिवाली आने में अब दस दिन ही बाक़ी थे …रतन लाल उसकी पत्नी गीता और इकलौता बेटासतीश सब ज़ोर शोर से दीपावली के दिये बनाने में लगे हुए थे।

जैसा कि विदित है जब से इस चाइनीज़ सामान ने बाज़ार में रौनक बिखेरनी शुरू की है तब से दियेबेचारे राह तकते रहते हैं….कि कब कौन उनके पास आएगा और उन पर नज़रें इनायत करेगा..बेचारे दिये आतुरता से ख़रीदारों का इंतज़ार करते रहते हैं।

कुछ लोग दियों में घी डालकर भगवान के सामने सजाते हैं …कुछ लोग पहले पानी में भिगाते हैंउसके बाद उनको सुखाते हैं सरसों का तेल या घी भरकर बत्ती लगाकर अपने घरों के आगे सजातेहैं….वह दिये फूले नहीं समाते।

प्राचीन काल से ही दियों का अपना इतिहास रहा है वह हर मौक़े पर मंदिर में त्योहारों पर और छोटेमोटे उत्सवों में अपनी छटा बिखेरते आए हैं ….अब तो मानो उनकी क़िस्मत पर ग्रहण ही लग गयाहै …हर दिवाली सज संवर कर विभिन्न रूपों में दुकानों में सजे रहते हैं उसमें से कुछ दियों की हीक़िस्मत अच्छी होती है बाक़ी फिर अगले साल का इंतज़ार करते रह जाते हैं या फिर कोने में पड़ेपड़े टूट फूट जाते हैं।

ये तो हो गई दिये की कहानी अब आइये बात करते हैं ….रतन लाल की ….रतन लाल एकपुश्तैनी कुम्हार था उसके हाथ में जादू था अपने सधे हुए हाथों से वह मिट्टी के बर्तनों व दियों कोसुंदर आकार दिया करता था…उस के दादा परदादा भी दिये बनाते आ रहे थे। यह कला उसकोअपने पूर्वजों से ही मिली थी….पहले तो राजा महाराजाओं के समय में दिये की अपनी एक दुनियाँहोती थी उस समय सजावट के लिए दियों का ही प्रचलन था लेकिन धीरे धीरे ये विलुप्त होनेलगे….लेकिन अब रतन लाल का धंधा चौपट सा होता जा रहा था।इसके अलावा उसे और कुछआता भी तो नहीं था ….जैसे तैसे चंद रुपये इकट्ठे होते थे रोटी पानी का इंतज़ाम हो जाया करताथा।

उसे बड़ा शौक़ था कि वह अपने बच्चे को पढ़ाए लिखाए उसने सोच लिया था की अब वह सतीशको कुम्हार नहीं बनाएगा वो चाहता था उसे पढा लिखा कर डॉक्टर, इंजीनियर अध्यापक कुछ तोज़रूर बनाएगा….उसे पता था कि अगर उसने बच्चे को नहीं पढ़ाया तो वह क्या करेगा इसप्रतियोगिता भरी दुनियाँ में वो कैसे जिएगा?

उसने बड़े जतन से अपने इकलौते बेटे सतीश का दाख़िला एक साधारण अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयमें करवा दिया था …जहाँ वह पाँचवीं कक्षा में पड़ता था….. जब कभी सतीश अंग्रेज़ी के एक दोशब्द भी बोलता था ….तो सतीश और गीता का सीना चौड़ा हो जाता था उन्हें लगता था उनकाबेटा भी बहुत जल्दी ही बड़ों की तरह गिट पिट करने लगेगा ….

इन दिनों रतन लाल की हालत बहुत ज़्यादा ख़राब चल रही थी …बड़ी मुश्किल से कुछ पैसेजोड़कर चिकनी मिट्टी आंगन में गिरवाई थी ….जिससे दिवाली की तैयारी हो सके पूरा परिवाररोटी प्याज़ खाकर दिन रात दिए बनाने में जुटा हुआ था ….ना सोने का समय न जागने का समय…बस वो तो किसी तरह सुंदर से सुंदर रंग बिरंगे दिए बनाने में जुटे हुए थे…..गीता अपनी कला सेकुछ फूल पत्तियां दियों में उकेर रही थी ….क्योंकि अब साधारण दिए कौन लेता है …सतीश भीअपने पापा की भरसक मदद कर रहा था ….  

अपने पापा से कहता था कि “पापा आप मम्मी को सरप्राइज़ क्यों नहीं देते” इस पर रतन लाल नेपूछा था “ये सरप्राइज़ क्या होता है” सतीश ने बताया कि सरप्राइज़ मतलब “अचानक बिना बताएकुछ उपहार दे देना” उसकी बड़ी तमन्ना थी कि उसके पापा भी उसकी माँ को सरप्राइज़ दें ।

रतन लाल ने सोचा था कि इस दिवाली पर जो भी आमदनी होगी उससे वह ज़रूर गीता को कुछसरप्राइज़ देगा और अपने बेटे की फ़ीस देगा …नया चाक ख़रीदेगा टूट फूट सा गया है ….घर कीभी मरम्मत करवानी थी छत में कहीं कहीं छेद हो गए थे जहाँ से बारिश में लगातार पानी आयाकरता था …हर दिये के साथ रतन लाल सपने बुनता रहता था …इधर दिये आकार लेते रहते थेऔर इधर रतन लाल के सपने आकार लेते रहते थे ।

दिन गुज़रते गए दिवाली लगभग क़रीब आ गई थी दिये भी तैयार थे…

रतन लाल ने बड़े जतन से अपनी पत्नी और सतीश की मदद से ठेले पर अपने दियों को सजाया रंगबिरंगे हर आकार के,हर रंग के दिये बिकने को तैयार थे….सच बहुत ही ख़ूबसूरत दिए बने थे..गीता फूली नहीं समा रही थी गीता चहक कर बोली “सतीश के पिताजी देखना इस बार सारेदिये बिक जाएंगे इस पर रतन लाल ख़ुश हो गया उसने कहा “देख अगर सारे दिए बिक गए तो मैंतेरे लिए क्या क्या करूँगा तुझे सतीश वाला सरप्राइज़ दूँगा”

ख़ैर रतन लाल अपने ठेले की पूजा की नारियल फोड़ा और बाज़ार की तरफ़ चल पड़ा….बहुतसारे लोगों ने अपनी दुकानें लगायी हुईं थीं…वो भी अपना ठेला निर्धारित स्थान पर लेकर खड़ा होगया …सुबह से शाम हो गयी कुल दो ही दिये बिके थे… झालर और मोमबत्तियों की दुकानों में तोख़ासी भीड़ थी पर उसकी दुकान पर कोई नहीं था भूले भटके ही कोई आ जाता था और आकरमोलभाव करता था…वो रात को डग डग भारी कदमों से वापस घर आ गया ….

अगले दिन फिर ठेला लेकर वो पहुँचा फिर दिन भर बैठा रहा मुश्किल से दस दिये ही बिके थे…वहमायूस होता जा रहा था …

 दिवाली के एक दिन पहले फिर वह अपना ठेला लेकर बाज़ार में पहुँचा…उस दिन फिर ज़्यादा सेज़्यादा बीस दिये ही बिके थे …ना जाने क्या परेशानी थी पिछले साल तो फिर भी कुछ रुपया आगया था…

दीवाली का दिन आ गया रतन लाल मायूस सा भारी कदमों से बाज़ार की तरफ़  चल पड़ा था …उस दिन उसको हल्का सा बुखार था चिंता के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी में दर्द हो रहा था तब भीवह बाज़ार पहुँचा लड़खड़ाते कदमों से घसीटता हुआ अपने शरीर और ठेले को …दिवाली का दिनथा उसे लगा आज तो ज़रूर कुछ दिये बिक ही जाएँगे….

रात हो गई थी चारों तरफ़ जगमगाहट थी सारे घर रंग बिरंगी लड़ियों झालरों से सजे हुए थे …बमपटाखों का शोर व्याप्त था …आज उसके पास कोई दिया लेने नहीं आया था वह बहुत उदास था… उसने अपने रुपये गिने तो क़रीब आठ सौ रूपए हुए थे…ग्यारह बजे रहे थे वह घर लौट रहा थाउसने सोचा चलो कुछ मिठाई ले लूँ ताकि आज घर में दीवाली हो जाए ….

रतन लाल दुखी मन से अपनी गाड़ी को ठेलता हुआ घर की तरफ़ चला जा रहा था कि अचानकउसकी गाड़ी का पहिया निकल गया और उसका ठेला गिर गया सारे दिये सड़क पर बिखर गए …तभी अचानक पीछे से आते हुए ट्रक ने सारे दिए कुचल दिए …सारे दिए सड़क पर बिखरे पड़े थेऔर एक किनारे रतन लाल पड़ा हुआ था उसकी आखें खुली हुईं थीं आँखों में सपने थे और मुट्ठी मेंबंद आठ सौ रुपये थे और चारों तरफ़ धमाके हो रहे थे रोशनी बिखरी पड़ी थी….. उसके खूनपसीने से बने हुए दिये बिना जले ही अपनी कहानी कह रहे थे……

ऋचा सिन्हा मुंबई